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बालशास्त्री रानडे ]
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[ मंगलदेव शास्त्री
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पर खड़ा होकर उसके पास आकर तीर्थाटन करने का आदेश देता है ( सगं ६-९ ) । दसवें से लेकर तेरहवें सगं तक वस्तुपाल की तीर्थयात्रा का विस्तृत वर्णन कर चौदहवें सगं में वस्तुपाल के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख हुआ है। इसी सगं में वस्तुपाल सद्गति को प्राप्त कर स्वर्गारोहण करते हैं। इस महाकाव्य की कथावस्तु अत्यन्त क्षीण है, पर कवि ने वस्तुव्यंजना के द्वारा इसका विस्तार किया है। इसकी भाषा समासयुक्त पदावलीसंवलित एवं अस्वाभाविक हैं पदविन्यास ( यत्र तत्र ) प्रसंगोचित एवं भावानुकूल हैं । कवि ने आनुप्रासिक प्रयोग द्वारा पदावली में श्रुतिमधुरता भरने का प्रयास किया है । वसन्तक्रीडा के वर्णन में भाषा की मृदुलता द्रष्टव्य है । प्रतिदिशं लवलीलवलीघुताऽद्भुततमालतमाल तरूत्तरः । अभिसार ससारसकूजितो घृतलवङ्गलवङ्ग
लताध्वजः ॥ ६।४५ ।
आधारग्रन्थ — तेरहवीं -चौदहवीं शताब्दी के जैन-संस्कृत महाकाव्य - डॉ० श्यामशंकर दीक्षित |
बालशास्त्री रानडे - [ १८१९ - १८८० ई० ] उन्नीसवीं के शताब्दी अद्वितीय विद्वान् तथा सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान् शिवकुमार शास्त्री एवं दामोदर शास्त्री के गुरु । इनका जन्म महाराष्ट्र में हुआ था और शिक्षा-दीक्षा ग्वालियर में हुई । बाजीराव पेशवा ने इन्हें बालसरस्वती की उपाधि से विभूषित किया था । गवर्नमेन्ट कॉलेज, वाराणसी में संस्कृत का अध्यापन । इन्होंने 'महाभाष्य' की टिप्पणी लिखी है । इनके अन्य ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं - ' सारासारविवेक', 'बृहज्ज्योतिष्टोमपद्धति'; 'वेदान्त सूत्रभाष्य' ( भामती टिप्पणी सहित ), 'सुमनोऽन्जलि:' ( वाराणसी, १८७० ई०, पृ० ३ ) डयूक ऑफ एडिनबरा की ५ श्लोकों में प्रशस्ति । इन्होंने 'काशीविद्यासुधानिधि' में कई उत्कृष्ट कोटि के निबन्ध लिखे थे ।
बुद्धघोष - संस्कृत के बौद्ध कवि [ समय ३८६ से ५५७ ई० तक ] । बौद्धधमं की एक किंवदन्ती के आधार पर बुद्धघोष ३८७ ई० में बुद्ध के त्रिपिटक का पाली अनुवाद लाने के लिए लंका गए हुए थे । 'पद्यचूड़ामणि' में दश सर्गों में भगवान् बुद्ध के जन्म, विवाह एवं उनके जीवन की अन्य घटनाओं का वर्णन है । कवि ने विभिन्न अलंकारों एवं छन्दों का प्रयोग कर अपने ग्रन्थ को अलंकृत किया है। इस पर 'रघुवंश' एवं 'बुद्धचरित' का पर्याप्त प्रभाव है। इसमें शान्तरस की प्रधानता है एवं अन्य रस अंग रूप से प्रयुक्त हुए हैं । ग्रन्थ में अलंकृति एवं विदग्धता के सर्वत्र दर्शन होते हैं । कृताभिषेका प्रथमं धनाम्बुधिघृतोत्तरीयाः शरदभ्रसंचयैः । विलिप्तगात्र्यः शशिरश्मिचन्दनैदिशो दधुस्तारकहारकामाः ॥ ५।४७ ।
मंगलदेव शास्त्री ( डाक्टर ) – ये गवर्नमेन्ट संस्कृत कॉलेज के प्राचार्य तथा संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी के उपकुलपति रह चुके हैं । इन्होंने संस्कृत, हिन्दी एवं अंग्रेजी में अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थों का प्रणयन किया है । णास्त्री जी ने 'ऋग्वेदप्रातिशाख्य' का तीन भागों में संपादन किया है । ग्रन्थ का तृतीय भाग 'ऋग्वेद प्रातिशाख्य' का अंग्रेजी अनुवाद है । ये भारत के प्रसिद्ध भाषाशास्त्री भी माने जाते हैं ।