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हरिषेण ]
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[हर्ष-परित
का प्रतिपादन कर उसे लोकप्रियता प्रदान करना है। इसमें सरल तथा अलंकृत दोनों ही प्रकार की भाषा के रूप दिखाई पड़ते हैं, फलतः भाषा में एकरूपता का अभाव है। सरस्वती विलास सीरीज, तन्जोर से १९०५ ई० में प्रकाशित । - हरिषेण-ये संस्कृत के ऐसे कवियों में हैं जिनकी रचना पाषाण-खण्डों पर प्रशस्तियों एवं अन्तलेखों के रूप में उत्कीणित है। इनकी जीवनी एवं काव्यप्रतिभा का पता इनके द्वारा रचित प्रयाग-प्रशस्ति पर उत्कीणित है। ये समुद्रगुप्त के आश्रित कवि थे और इन्होंने अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में एक लेख की रचना ३४५ ई. में की थी, जो प्रयाग के अशोक-स्तम्भ पर विराजमान है । इस प्रशस्ति में समाद समुद्रगुप्त की दिग्विजय तथा असाधारण एवं ऊर्जस्वी व्यक्तित्व का पता चलता है। इस प्रशस्ति में कवि की जीवनी भी सुरक्षित है, जिससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम ध्रुवभूति था जो तत्कालीन गुप्त नरेश के महादण्डनायक, एक उच्चकोटि के राजनीतिज्ञ एवं प्रकाण्ड पण्डित थे। हरिषेण भी अपने पिता की भांति सम्राट के पदाधिकारी थे जो क्रमशः उन्नति करते हुए सांधिविग्रहिक, कुमारादित्य तथा महादण्डनायक के उच्चपद पर अधिष्ठित हुए। ये समुद्रगुप्त की राजसभा के शीर्षस्थ विद्वान थे। हरिषेण रचित 'प्रयाग-प्रशस्ति' उत्कृष्ट कोटि की काव्य-प्रतिभा का परिचायक है। इसका आरम्भ स्रग्धरा छन्द में हुआ है तथा अन्य अनेक छन्दों के अतिरिक्त इसमें गद्य का भी प्रयोग किया गया है, जो अलंकृत कोटि की गद्य-शैली का रूप प्रदर्शित करता है। इसका पद्यात्मक विधान कालिदास की प्रतिभा का संस्पर्श करता है तो गद्यात्मक भाग में बाणभट्ट की सी शैली के दर्शन होते हैं। इनकी अन्य कोई कीर्ति उपलब्ध नहीं होती।
हर्ष-चरित-यह बाणभट्ट रचित गद्य-रचना है। इसमें कवि ने आठ उच्छ्वासों में तत्कालीन भारत सम्राट हर्ष के जीवन का वर्णन किया है । इस कृति को स्वयं बाण ने आख्यायिका कहा है । "तथाऽपि नृपतेभक्त्या भीतो निर्णनाकुलः । करोम्याख्यायिकाम्मोघो जिह्वाप्लवनचापलम् ॥" हर्षचरित १९ । इसके प्रथम उच्छ्वास में वात्स्यायनवंश का वर्णन है। प्रारम्भ में मंगलाचरण, कुकवि-निन्दा, काव्य-स्वरूप एवं आख्यायिकाकार कवियों का वर्णन है । बाण ने भूमिका भाग में ( जो श्लोकबद्ध है ) वासवदत्ता, व्यास, हरिश्चन्द्र, सातवाहन, प्रवरसेन, भास, कालिदास, बृहत्कथा, मायराज आदि का उल्लेख किया है। पुनः कवि ने अपने वंश का परिचय दिया है। बाण ने अपने वंश का सम्बंध सरस्वती से स्थापित करते हुए बताया है कि ब्रह्मलोक में एक बार दुर्वासा ऋषि ने किसी मुनि से कलह करते हुए सामवेद के मन्त्रों का अशुद्ध उच्चारण कर दिया। इस पर सरस्वती को हंसी आई और दुर्वासा ने अपने ऊपर हसते देखकर उन्हें शाप दे दिया कि वह मत्यं लोक में चली जाय । ब्रह्मलोक से प्रस्थान कर सरस्वती मत्यलोक में आई और शोणनद के तट पर अपना निवास बनाकर रहने लगी। उसके साथ उसकी प्रिय सखी सावित्री भी रहती थी। एक दिन उसने घोड़े पर चढ़े हुए एक युवक को देखा जो च्यवन ऋषि का पुत्र दधीच था। सरस्वती उससे