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हरिभद्र ]
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[हितोपदेश
महाराष्ट्री का प्रयोग किया है जो प्राकृत व्याकरण-सम्मत हैं। नाटकीय दृष्टि से उनकी तीनों कृतियों में अभिनेयता का तत्त्व विपुल मात्रा में दिखाई पड़ता है। उनके संवाद छोटे एवं पात्रानुकूल हैं तथा नाटकों की लघुता उन्हें रंगमंचोपयोगी बनाने में सक्षम है। प्रायोगिक कठिनाई उनके नाटकों में नहीं दिखाई पड़ती। रोमांचक 'प्रणयनायिका' के निर्माता की दृष्टि से हर्ष का स्थान संस्कृत के नाटककारों में गोरवास्पद है। उन्होंने भास एवं कालिदास से प्रेरणा ग्रहण कर अपने नाटकों की रचना की है। "रोमान्टिक ड्रामा के जितने कमनीय तथा उपादेय साधन होते हैं उन सबका उपयोग हर्ष ने इन रूपकों में किया है। कालिदास के ही समान हर्ष भी प्रकृति और मानव के पूर्ण सामरस्य के पक्षपाती हैं। मानव भाव को जाग्रत करने के लिए दोनों ने प्रकृति के द्वारा सुन्दर परिस्थिति उत्पन्न की है।" संस्कृत साहित्य का इतिहास-पं० बलदेव उपाध्याय सप्तम संस्करण पृ० ५३७ ।
आधारग्रन्थ-१. हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर-डॉ. दासगुप्त एवं हे २. संस्कृत साहित्य का इतिहास-प० बलदेव उपाध्याय । ३. संस्कृत सुकवि-समीक्षापं० बलदेव उपाध्याय । ४. संस्कृत कवि-दर्शन-डॉ० भोलाशंकर व्यास । ५. संस्कृतकाव्यकार-डॉ० हरिदत्त शास्त्री। ६. संस्कृत नाटक (हिन्दी अनुवाद )-डॉ० ए० बी० कीय।
हरिभद्र-जैन दर्शन के आचार्य। इनका समय विक्रम की आठवीं शताब्दी है। इनके प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं-'षड्दर्शन समुच्चय' एवं 'अनेकान्त जयपताका' ।
आधार ग्रन्थ-भारतीय दर्शन-आचार्य बलदेव उपाध्याय ।
हलायुध कृत कविरहस्य-भट्टिकाव्य के अनुकरण पर ही 'कविरहस्य' महाकाव्य की. रचना हुई है। यह शास्त्रकाव्य है। इसमें राष्ट्रकूटवंशीय राजा कृष्णराज तृतीय ( ९४०-९५३ ई०) को प्रशंसा है। कवि ने संस्कृत व्याकरण के आधार पर इसका वर्णन किया है तथा सभी उदाहरण आश्रयदाता की प्रशंसा में निबद्ध किये हैं।
हितोपदेश-'पंचतन्त्र' से निकला हुआ कथा-काव्य । यह पशुकथा अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ है। इसके लेखक नारायण पण्डित हैं। ये बंगाल नरेश धवलचन्द्र के सभा-कवि थे तथा इनका समय १४वीं शताब्दी के आसपास है। स्वयं ग्रन्थकार ने स्वीकार किया है कि इस ग्रन्थ का मूलाधार 'पंचतन्त्र' है। इस ग्रन्थ को एक हस्तलिखित प्रति १३७३ ई० की प्राप्त होती है। नारायण ने भट्टारक वार ( रविवार ) का उल्लेख ऐसे दिन के रूप में किया है जिस दिन कोई काम नहीं करना चाहिए। इस दृष्टि से विचार करने पर विद्वानों ने कहा कि ऐसी शब्दावली के प्रयोग का रिवाज ९०० ई. तक नहीं था। 'मित्रलाभ' के चार परिच्छेद हैं-मित्रलाभ, सुहृद्-भेद, विग्रह एवं सन्धि । इसमें लेखक ने शिक्षाप्रद कथाओं के माध्यम से नीतिशास्त्र, राजनीति एवं अन्य सामाजिक नियमों की शिक्षा दी है। इस पुस्तक की रचना मूलतः गद्य में हुई है पर स्थान स्थान पर प्रचुर मात्रा में पद्यों का प्रयोग किया गया है। इसमें लगभग ६७९ नीति-विषयक पदों का समावेश किया गया है जिन्हें लेखक ने, अपने कथन की पुष्टि के लिए, 'महाभारत', 'धर्मशान', पुराण आदि से लिया है। 'हितो.