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हरिविलास महाकाव्य ]
( ६७८ )
[हरिश्चन्द्र
छालिक्यमेव मधुसूदनेन ॥" हरिवंश २।८९६३ । “यत्र यज्ञे वर्तमाने सुनाट्येन नटस्तदा । महर्षीस्तोषयामास भद्रनामेति नामतः ॥" वही २।११।२६ इसमें 'दारवती' के निर्माण में भारतीय वास्तुकला का उत्कृष्ट रूप मिलता है तथा वास्तुकला-सम्बन्धी कई पारिभाषिक शब्द भी प्राप्त होते हैं जो तदयुगीन वास्तुकला के विकसित रूप का परिचय देते हैं। जैसे 'अष्टमार्गमहारथ्या' तथा 'महाषोडशचत्वर' । इसके दार्शनिक विवेचन में भी अनेक नवीन तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं तथा सगं और प्रतिसर्ग के प्रसंग में भारतीय दर्शन की सुव्यवस्थित परम्परा का पूर्वकालिक रूप प्राप्त होता है। हरिवंश के काल-मिणय के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। हापकिंस, हाजरा एवं फकुंहर के अनुसार इसका समय चतुर्थशताब्दी है, पर अन्तःसाक्ष्य एवं बहिःसाक्ष्य के आधार पर इसका समय तृतीयशताब्दी से भी पूर्व निश्चित होता है। अश्वघोष ने हरिवंश के कतिपय श्लोकों को ग्रहण किया है। अश्वघोष कृत 'वजूसूची' के कुछ श्लोक हरिवंश में भी प्राप्त होते हैं, अतः इसकी प्राचीनता असंदिग्ध है। अश्वघोष का समय प्रथम से द्वितीय शती है। इससे ज्ञात होता है कि प्रथम शती में भी हरिवंश विद्यमान था।
बेबर एवं रे चौधरी ने इस मत को स्वीकार किया है। . आधारग्रन्थ-१. हरिवंश पुराण (हिन्दी अनुवाद सहित ) गीताप्रेस गोरखपुर ।
२. जे० एन० फकुहर-ऐन आउटलाइन ऑफ रेलिजस लिटरेचर ऑफ इंडिया । ३. एफ० डब्ल्यू. हॉपकिंस-व ग्रेट एपिक्स ऑफ इन्डिया। ४. ए. बी. कीथ-संस्कृत ड्रामा। ५. एस. कोनो-दस इन्डिका ड्रामा-बलिन १९२० । ६.हरिवंश पुराण एक सांस्कृतिक अध्ययन-डॉ. वीणापाणि पाण्डेय ।
हरिविलास (महाकाव्य)-इस महाकाव्य के रचयिता प्रसिद्ध वैद्यराज लोलिम्बराज हैं। इसमें श्रीकृष्ण की ललित लीलाएं वर्णित हैं तथा पांच सौ में बाल-लीला का वर्णन है। विशेष विवरण के लिए दे० [ लोलिम्बराज ] इनका समय ११ वीं शताब्दी का मध्य है। ये दक्षिणनरेश हरिहर के समकालीन थे। इन्होंने 'वैद्यजीवन' नामक प्रसिद्ध वैद्यकग्रन्थ की रचना की है।
हरिश्चन्द्र-ये जैनकवि थे। इनका समय १२ शतक माना जाता है। ये मक नामक वंश में उत्पन्न हुए थे। इनके पिता का नाम आर्द्रदेव एवं माता का नाम रख्या देवी था। ये जाति के कायस्थ थे। इन्होंने 'धर्मशर्माभ्युदय' महाकाव्य एवं 'जीवन्धरचम्पू' की रचना की है। 'धर्मशर्माभ्युदय' २१ सौ का महाकाव्य है जिसमें पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ जी का वर्णन किया गया है। इसमें कवि ने अपने को रसध्वनि का पथिक कहा है-रसध्वनेरध्वनि सार्थवाहः-प्रशस्तिश्लोक ७। इसका प्रकाशन काव्यमाला (सं०८) बम्बई से १८९९ ई० में हुआ है। इस महाकाव्य की रचना वैदर्भी रीति में हुई है। 'जीवन्धरचम्पू' में राजा सत्यंधर तथा विजया के पुत्र जैन राजकुमार जीवनधर का चरित वर्णित है । इसके आरम्भ में जिनस्तुति है तथा कुल ११ लम्बक हैं-सरस्वतीलम्भ, गोविन्दालम्भ, गन्धर्वदत्तालम्भ, गुणमालालम्भ, पालम्भ, लक्ष्मणालम्भ तथा मुक्तिलम्भ । इसमें स्थान-स्थान पर जैनसिद्धान्त के अनुसार धर्मोपदेश दिये गए हैं। इस पम्प का उद्देश्य जीवन्धर के परित के माध्यम से जैनधर्म के सिद्धान्तों