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सांस्यदर्शन]
(६४३)
[सांख्यदर्शन
३. सर्वसम्भवाभावात्-सभी कार्य सभी कारण से उत्पन्न नहीं होते । केवल समचं कारण से ही ईप्सित कार्य की उपलब्धि सम्भव होती है। इससे यह बात होता है कि कारण में कार्य पहले से ही सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहता है और उत्पन्न होने के पूर्व वह (कार्य) अव्यक्तावस्था में रहता है।
४. शक्तस्य शक्यकरणात-शक्त या शक्तिसम्पन्न वस्तु में किसी खास वस्तु को उत्पन्न करने की शक्ति रहती है; अर्थात जो कारण जिस कार्य को उत्पन्न करने में शक्त या समर्थ है, उससे उसी कार्य की उत्पत्ति होती है। जैसे; तिल से तेल ही निकल सकता है, घी नहीं। इससे यह सिद्ध होता है कि कार्य और कारण परस्पर सम्बद्ध होते हैं।
५. कारणभावात्-इसका अभिप्राय यह कि कार्य कारण से अभिन्न है या उसी का स्वरूप है । उदाहरण के लिए; घड़ा मिट्टी से पृथक् न होकर अभिन्न है और उसका स्वभाव मिट्टी का ही होगा। इससे यह सिद्ध होता है कि कारण का जैसा स्वभाव होगा कार्य का भी वैसा ही होगा। फलतः, कार्य-कारण में स्वभाव भी एकता बनी रहेगी । इस दृष्टि से सत्कार्यवाद की युक्तियुक्तता सिद्ध हो जाती है ।
सत्कार्यवाद के दो रूप हैं-परिणामवाद और विवर्तवाद । परिणामवाद का अर्थ है कारण से उत्पन्न कार्य का वास्तविक होना। यहां कार्य की उत्पत्ति से अभिप्राय है कारण के वास्तविक रूपान्तर से। जैसे; दूध से दही का उत्पन्न होना । यहां दही को दूध का परिणाम कहा जायगा। दूध का वास्तविक विकार ही दही के रूप में मा जाता है । यह मत सांख्य का है । दूसरा मत विवत्तवाद वेदान्त का है । इसके अनुसार कारण में विकार या रूपान्तर वास्तविक न होकर, बाभास मात्र है। नाना प्रकार के परिलक्षित होने वाले विकार भ्रम या आभास मात्र हैं। जैसे; अन्धकार में पड़ी हुई रस्सी को देखकर उसे सपं समझते हुए हम भाग खड़े होते हैं, किन्तु दीपक से देखने पर यह प्रम दूर हो जाता है और हम रस्सी को ही देखते हैं, मर्प को नहीं। यहाँ रस्सी में सर्प की प्रतीति मात्र होती है, सर्प के रूप में रस्सी परिणत नहीं होती। इसी प्रकार कायं कारण का वास्तविक रूपान्तर न होकर विवर्तमात्र होता है। यहां कारण से कार्य का असत्य रूपान्तर होता है। वेदान्त के अनुसार नामरूपारमक बगत की उत्पत्ति ब्रह्मा से ही होती है, किन्तु जगत् भ्रम या कल्पनामात्र है, वह अखत्य है, स्वप्नवत् झूठा है। जगत् की केवल प्रतीति होती है और एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है।
प्रकृति और उसके गुण-सांख्यदर्शन परिणामवाद को मानता है। इसके अनुसार प्रकृति बोर पुरुष दो ही प्रधान तत्व हैं, जिनके सम्बन्ध से ही जगत् की सृष्टि होती है। प्रकृति बड़ एवं एक है किन्तु पुरुष चेतन तथा अनेक । जगत् के माविर्भाव के लिए उभय तत्त्व को मानने के कारण सांस्य देतवादी दर्शन है। मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रिय की उत्पत्ति किस मूल तत्व से हुई है, इसी का अन्वेषण दर्शन का विषय होता है। बोल, जैन, न्याय-वैशेषिक तथा मीमांसा के अनुसार यह मूल वत्त मुक्म 'परमाणु' ही है। पर, सांस इस मत को स्वीकार नहीं करता। इसके बनुवार भौतिक परमाणु