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हम्मीर महाकाव्य ]
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[हरचरित चिन्तामणि
में हैं। आनन्दवर्द्धन का समय ८५० ई० है, अतः दामोदर मित्र का समय नवीं शताब्दी ई० का प्रारम्भ माना जाता है। इस नाटक की रचना रामायण की कथा के आधार पर हुई है। यह दीर्घविस्तारी नाटक है तथा इसमें एक भी प्राकृत पद्य का प्रयोग नहीं हुआ है। इसके दो संस्करण प्राप्त होते हैं-प्राचीन और नवीन । प्राचीन के प्रणेता दामोदर मिश्र माने जाते हैं तो नवीन का रचयिता मधुसूदनदास को कहा जाता है। प्राचीन में १४ तथा नवीन में ९ अंक प्राप्त होते हैं। इसमें गय की न्यूनता एवं पद्य का प्राचुर्य है। इसकी अन्य विशेषताएं भी द्रष्टव्य हैं; जैसे विदूषक का अभाव तथा पात्रों का आधिक्य । इसमें विष्कम्भ भी नहीं है तथा सूत्रधार का भी अभाव है। मैक्समूलर के अनुसार यह नाटक न होकर नाटक की अपेक्षा हाम्य के अधिक निकट है तथा इससे प्राचीन भारतीय प्रारम्भिक नाट्यकला का परिचय प्राप्त होता है। पिशेल तथा ल्यूड्स ने इसे 'छायानाटक' की आरम्भिक अवस्था का द्योतक माना है। स्टेनकोनो, विंटरनित्स तथा अन्य पाश्चात्य विद्वान् भी इसी मत के समर्थक हैं, पर कीथ के अनुसार यह मत प्रामाणिक नहीं है। उन्होंने बताया है कि इसकी रचना प्रदर्शन की दृष्टि से नहीं हुई थी। इसके अन्तिम पद से इसके रचयिता दामोदर मिश्र ज्ञात होते हैं। "रचितमनिलपुत्रेणाप वाल्मीकिनान्धी निहितममृतबुद्धपा प्राङ् महामाटकं यत् । सुमतिनृपतिभोजेनोधृतं तत् क्रमेण प्रथितमवतु विश्वं मिश्रदामोदरेण ॥" १४।९६ [इस नाटक का हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी से हो चुका है ]
हम्मीर महाकाव्य-इसके रचयिता हैं नयनचन्द्रसूरि। इसमें कवि ने अहाउद्दीन एवं रणथम्भोर के प्रसिद्ध राणा हम्मीर के युद्ध का आँखों देखा वर्णन किया है, जिसमें हम्मीर लड़ते-लड़ते काम आये थे। इस महाकाव्य में १४ सगं एवं १५७२ श्लोक हैं । इसकी प्रमुख घटनाएं हैं-अलाउद्दीन का हम्मीर से कुछ होने का कारण, रणथम्भोर के किले पर मुसलमानों का आक्रमण, नुसरत खां का युद्धस्थल में मारा जाना, अल्लाउद्दीन का स्वयं युद्ध क्षेत्र में आकर युद्ध करना, रतिपाल का विश्वासपात, राजपूतों की पराजय तथा जौहरव्रत एवं 'साका' । इन सारी घटनाओं का चित्र अत्यन्त प्रामाणिक है जिसकी पुष्टि ऐतिहासिक ग्रन्थों से भी होती है। यह महायुद्ध १९५७ विक्रम संवत् में हुआ था। कहा जाता है कि नयनचन्द्रसूरि मे इस युद्ध को स्वयं देखा था और उसके देखनेवालों से भी जानकारी प्राप्त की थी। यह वीररस प्रधान काव्य है। इसमें ओजमयी पदावली में वीररस की पूर्ण व्यंजना हुई है। कषि ने विनम्रता. पूर्वक महाकवि कालिदास का ऋण स्वीकार किया हैं। नीचे के श्लोक पर 'रघुवंश' का प्रभाव है-"क्वैतस्य राज्ञः सुमहच्चरित्रं क्षैषा पुनमें धिषणानुरूपा । ततोऽति. मोहाद मुजयकयैव मुग्धस्तितीर्षामि महासमुद्रम्" ॥ १।११ इसका प्रकाशन १८१८ ई. में बम्बई से हुआ है, सम्पादक हैं श्री नीलकण्ठ जनार्दन कीर्तने ।
हरचरित चिन्तामणि-इस महाकाव्य के रचयिता है काश्मीर निवासी कवि जयद्रय । इसमें भगवान शंकर के चरित्र एवं लीलावों का वर्णन है। इसकी रचना