Book Title: Sanskrit Sahitya Kosh
Author(s): Rajvansh Sahay
Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan

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Page 668
________________ सुबन्धु ] ( ६५७ ) [ सुबन्धु है और जो सज्जनों का एकमात्र बन्धु है उस सुबन्धु ने प्रत्येक अक्षर में श्लेष द्वारा सप्रपञ्च रचना की निपुणता का परिचायक वासवदत्ता नामक ग्रन्थ का निर्माण किया है ।' सुबन्धु रचित 'वासवदत्ता' का सम्बन्ध उदयन एवं वासवदत्ता से नहीं है । इसमें कवि ने ऐसी काल्पनिक कथा का वर्णन किया है जो उसके मस्तिष्क की उपज है । सुबन्धु अलंकृत गद्यशैली के प्रणेता एवं श्लेष प्रिय गद्य-काव्य-लेखक हैं । इन्होंने अपनी रचना के प्रत्येक अक्षर को श्लेषमय बनाने की प्रतिज्ञा की है और इसमें वे पूर्णतः सफल हुए हैं। इनकी शैली में बौद्धिकता का प्राधान्य एवं रागात्मकता का कम निर्वाह किया गया है । इन्होंने पात्रों के हषं दुःखादि भावों के चित्रण में अपनी वृत्ति को लोन न कर शाब्दी - क्रीड़ा-प्रदर्शन की ओर अधिक ध्यान दिया है। सुबन्धु प्रेम-कथा का वर्णन करते हुए भी नायक-नायिका के हृदय के भावों को पूर्णतः अभिव्यक्त करने में सक्षम नहीं हो सके, कारण कि इनका ध्यान श्लेष - बाहुल्य एवं शैली पक्ष के अलंकरण की ओर अधिक था । इन्होंने नाना विद्याओं — मीमांसा, न्याय, बोद्ध आदि दर्शनों के पाण्डित्य प्रदर्शन के चक्कर में पड़कर तथा यत्नसाधित अलंकार-योजना के कारण पाठक की बुद्धिमात्र को ही चमत्कृत करने का प्रयास किया है । भाव पक्ष के चित्रण में इन्होंने उत्कृष्ट कवित्वशक्ति का परिचय नहीं दिया है और इनकी शैली कृत्रिम अलंकार - प्रयोग के कारण बोझिल हो गयी है । वासवदत्ता के विरह-वर्णन में कवि सानुप्रासिक छटा को ही अधिक महत्त्व देता है— 'सुकान्ते कान्तिमति ! मन्दं मन्दमपनय बाष्पबिन्दून् । यूथिकालङ्कृते यूथिके । संचारय नलिनीदलतालबुन्तेनार्द्रवातान् । एहि भगवति निद्रे । अनुगृहाण माम्, धिक्, इन्द्रियैरपरैः किमिति लोचनमयान्येव न कृतान्यङ्गानि विधिना । भगवन् कुसुमायुध तथायमज्जलिः, अनुवशो भव भावयति मादृशे जने । मलयानिल सुरत महोत्सव दीक्षागुरो वह यथेष्टम्, अपगता मम प्राणाः, इति बहुविधं भाषमाणा वासवदत्ता सखीजनेन समं संमुमूच्छं । पृ० १४३-४४ । 'सुन्दरी कान्तिमती ! धीरे-धीरे आंसू पोंछ दो । जूही के पुष्पों से अलंकृत यूथिके ! कमल-पत्र के पंखे से शीतल हवा करो । भगवति निद्रे ! आओ, मुझ पर कृपा करो । अन्य ( नेत्रातिरिक्त) इन्द्रियों की आवश्यकता नहीं है, ब्रह्मा ने सब इन्द्रिय नेत्र स्वरूप क्यों नहीं बनाई । ( अतः ) उसे धिक्कार है । भगवन् कुसुमायुध ! यह हाथ जोड़ती हूँ, इस अनुरक्तजन पर कृपा करो । सुरतरूपी महोत्सव के प्रवतंक ! मलयानिल ! अब तुम इच्छानुकूल चलो, मेरे तो प्राण निकल ही गए, इस तरह अनेक प्रकार से कहती हुई सखियों के साथ मूच्छित हो गयी' । पाण्डित्य प्रदर्शन के मोह में सुबन्धु रसों का सम्यक् परिपाक नहीं करा सके और अवसर का बिना विचार किये ही श्लेष, यमक, विरोधाभास, परिसंख्या एवं मालादीपक की इन्होंने सेना तैयार कर दी है अवश्य ही, इन्होंने छोटे-छोटे वाक्यों की रचना कर तथा श्लेष - प्रेम का त्याग कर रोचक शैली में इस काव्य का सहृदयों के मनोरंजन का पर्याप्त साधन प्रस्तुत हो गया है, कदाचित् ही दिखाई पड़ते हैं । बाण की भांति इन्होंने लम्बे-लम्बे अधिकांशतः छोटे-छोटे वाक्यों का ही सन्निवेश किया है । इन्होंने लम्बे-लम्बे समासान्त पदावली के प्रति भी अधिक रुचि प्रदर्शित नहीं की है। किसी विषय का वर्णन करते प्रणयन किया है वहाँ परन्तु ऐसे स्थल क्वचित् वाक्यों का प्रयोग न कर ४२ सं० सा० "

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