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सीतास्वयंवर ]
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सीतास्वयंवर (महाकाव्य)-इसके प्रणेता श्री नागराज हैं जिन्होंने १९४० ई. में 'सीतास्वयंवर' की रचना की थी। इसका प्रकाशन मैसूर से हुआ है। इसकी अन्य रचनाएं है-'स्तोत्रमुलाफल', 'भारतीय देशभक्तचरित', 'शबरीविलास' आदि । 'सीतास्वयंवर' में १६ सगं हैं। इसका कथानक वाल्मीकि रामायण पर बात है। इसके प्रमुख प्रकरण हैं-विश्वामित्रागमन, सगरोदन्त, गङ्गावतरण, अहल्योउरण, कामुक-भंजन तथा जानकी-परिणय । इसकी शैली अलंकृत होकर भी सरल है। शरदि गगनसंस्थं चन्द्रिकेवामृतांशु नवजलदमनल्पं चन्चलेवातिनीलम् । कनकखचितवही मेरुशेलं यथा वा नरवरमभिपेदे जानकी जीवितेशम् ॥ १५॥१०१।।
सिद्धयोग-आयुर्वेदशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ । इसके रचयिता का नाम वृन्द है। इनका समय नवम शतक के आसपास है। इस ग्रन्थ की रचना 'चरक', 'सुश्रत' एवं 'बाग्भट' के आधार पर की गयी है। इसमें रोगों का क्रम 'माधवनिदान' के अनुसार रखा गया है तथा अपने अनुभवसिद्ध योगों का भी संग्रह है-नानामतप्रषितदृष्टफलप्रयोगः प्रस्ताववाक्यसहितैरिह सिढयोगः। वृन्देन मन्दमतिनात्महितार्थिनाऽयं संलिख्यते गदविनिश्चयप्रक्रमेण ॥ वृन्द के एक टीकाकार के अनुसार इसमें पश्चिम में उत्पन्न होने वाले रोगों का अधिक वर्णन है, अतः इसका लेखक मारवाड़ या पश्चिम भारत का रहा होगा। इस ग्रन्थ में सरल एवं ललित भाषा में योगों का संग्रह किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना मुख्यतः चिकित्सा के दृष्टिकोण से हुई है और रोगों का निदान नहीं है। लेखक ने खनिज धातुओं का भी प्रयोग कम किया है किन्तु लोह तया महर के प्रयोग का बाहुल्य दर्शाया है। इसकी एकमात्र टीका श्रीकण्ठरचित 'कुसुमावली' प्राप्त होती है।
आधारग्रन्य-आयुर्वेद का बृहत् इतिहास-श्री अत्रिदेव विद्यालंकार । सिद्धसेन दिवाकर जैनदर्शन के आचार्य। इनका समय ५ वीं शताब्दी है । पुरावादी नामक व्यक्ति इनके गुरु थे। सिद्धसेन दिवाकर जैन-न्याय के प्रस्थापक माने जाते हैं। इनके द्वारा रचित अन्य इस प्रकार है-१. न्यायावतार जिसकी टीका १० वीं पताब्दी में सिवर्षि द्वारा लिखी गयी है। २-सन्मति-तक-इस पर अभयसूरि ने टीका लिखी है। ३-तस्वार्थ टीका ४-कल्याण-मन्दिर स्तोत्र ।
आधारग्रन्थ-भारतीय दर्शन-आचार्य बलदेव उपाध्याय ।
सुबन्धु-संस्कृत गद्यकाव्य के प्रौढ़ लेखक एवं 'वासवदत्ता' नामक पुस्तक के रचयिता। इनका जीवनवृत्त एवं तिषिक्रम भात नहीं है। इनकी एकमात्र रचना 'वासवदत्ता' उपलब्ध है, किन्तु उससे भी इनके जीवनवृत्त की जानकारी प्राप्त नहीं होती। इनके सम्बन्ध में विद्वानों में मतक्य नहीं है । कुछ विद्वान् इन्हें काश्मीरी स्वीकार करते हैं तो कुछ के अनुसार ये मध्यदेशीय हैं। वाण के 'हर्षचरित' में उत्तरांचल के कवियों की श्लेषप्रियता का उल्लेख है। सुबन्धु ने अपनी रचना को 'प्रत्यक्षरश्वमयप्रबन्ध' कहा है, बतः इस दृष्टि से ये काश्मीरी सिद्ध होते हैं। यह इलेवप्रियता संभवतः इनकी प्रान्तगत विशेषता के कारण हो सकती है। यदि सुबन्धु की रचना में सेवाषिक्य का कारण उनका उदीच्य होना स्वीकार करें वो उन्हें काश्मीरी माना जा सकता है।