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स्तोत्रकाव्य या भक्तिकाव्य ]
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[ स्तोत्रकाव्य या भक्ति काव्य
उज्जैन स्थित विभिन्न शिवलिङ्गों के माहात्म्य एवं उत्पत्ति का वर्णन किया गया है, तथा महाकालेश्वर का विस्तारपूर्वक वर्णन है । ७. ताप्तीखण्ड- इसमें ताप्ती नदी के तीरवत्र्ती सभी तीर्थों का वर्णन किया गया है। इसके तीन परिच्छेद हैं- विश्वकर्मा उपाख्यान, विश्वकर्मावंशाख्यान तथा हाटकेश्वर माहात्म्य । इस खण्ड में नागर ब्राह्मणों का वर्णन मिलता है । ८. प्रभासखण्ड - इसमें प्रभास क्षेत्र का विस्तारपूर्वक विवेचन है जो द्वारिका के भौगोलिक विवरण के कारण महत्वपूर्ण है ।
इस पुराण में पुराणविषयक अन्य सभी विषयों का विस्तारपूर्वक विवेचन है । यह शैव पुराण है । इसके समय निरूपण के सम्बन्ध में विभिन्न प्रकार की बातें कही गयी हैं । जगन्नाथ मन्दिर का वर्णन होने के कारण विल्सन प्रभृति विद्वान् इसका रचनाकाल ११ वीं शताब्दी निश्चित करते हैं, पर यह मत युक्ति-संगत नहीं है । संसार के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ 'ऋग्वेद' के 'यथारुप्लबते' मन्त्र में जगन्नाथ जी के मन्दिर का वर्णन है । इस पुराण के प्रथमखण्ड में 'किरातार्जुनीयम्' महाकाव्य के प्रसिद्ध श्लोक 'सहसा विदधीत न क्रियाम्' को छाया पर लिखित श्लोक प्राप्त होता है तथा काशीखण्ड के २४ वें अध्याय में बाणभट्ट की शैली का अनुकरण करते हुए कई श्लोक रचित हैं, जिनमें परिसंख्या अलंकार के उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं- विभ्रमो यत्र नारीषु न विद्वत्सु च कर्हिचित् । नद्यः कुटिलगामिन्यो न यत्र विषये प्रजाः ॥ २४१९ | विद्वानों ने इसका समय सप्तम एवं नवम शती के मध्य माना है । इस पुराण में वेदविषयक सामग्री पर्याप्तरूपेण प्राप्त होती है ।
आधारग्रन्थ - १. स्कन्दपुराण ( प्रथम प्रकाशन) बनारस १८८६ ई० । २. स्कन्दपुराण ( द्वितीय प्रकाशन ) कलकत्ता १८७३-८० । ३. स्कन्दपुराण ( तृतीय प्रकाशन ) बम्बई १८८१ ई० । ४. स्कन्दपुराणांक ( हिन्दी ) - गीता प्रेस, गोरखपुर । ५. प्राचीन भारतीय साहित्य – श्रीविन्टरनित्स भाग १, खण्ड २ ( हिन्दी अनुवाद ) । ६. पुराण- तत्त्व-मीमांसा - श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी । ७. पुराण - विमर्श - पं० बलदेव उपाध्याय । ८. पुराणस्य वैदिक सामग्री का अनुशीलन - डॉ० रामशंकर भट्टाचार्यं । ९. पुराणविषयानुक्रमणिका - डॉ० राजबली पाण्डेय । १०. स्कन्दपुराण - ए स्टडी ( अंगरेजी ) भाग १, २ ( शोधप्रबन्ध ) डॉ० ए० बी० एल० अबस्थी ।
स्तोत्रकाव्य या भक्तिकाव्य-संस्कृत में स्तोत्रसाहित्य अत्यन्त विशाल एवं - हृदयग्राही है । धार्मिक भावना का प्राधान्य होने के कारण स्तोत्रकाव्य का प्रचार जनसाधारण एवं भक्तजनों में अधिक हुआ है। इसमें अनुराग तथा विराग दोनों प्रकार की भावनाएँ परिव्याप्त हैं । अतः आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से इसकी लोकप्रियता सर्वव्यापक है । अपने आराध्य की महत्ता और अपनी दीनता का निष्कपट भाव से प्रदर्शन करते हुए संस्कृत भक्त कवियों ने अपूर्व तन्मयता के साथ हृदय के स्वतःस्फुरित उद्गारों को व्यक्त किया है। वह भगवान् की दिव्य विभूतियों का दर्शन कर आश्चर्यचकित हो जाता है एवं उनकी विशालहृदयता तथा असीम अनुकम्पा को देखकर उनके अहेतुक स्नेह का गान करते हुए आत्मविस्मृत हो जाता है क्षुद्रता और भगवान् का अकारण स्नेह उसके हृदय में भावों का
। अपने जीवन की उद्वेलन कराने लगते