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सागरनन्दी]
(६४८ )
[सामवेर
(हिन्दी अनुवाद) चौखम्भा प्रकाशन । ८. सांख्य दर्शन का इतिहास-श्री उदयवीर शानी। ९. सांस्यतस्व-मीमांसा-श्री उदयवीर शास्त्री। १०. सांख्यदर्शनम्-श्री उदयवीर शास्त्री। ११. प्राचीन सांख्य एवं योगदर्शन का पुनरुद्धार-पं० हरिशंकर जोशी। १२. सांख्यदर्शन की ऐतिहासिक परम्परा-डॉ. आद्या प्रसाद मिश्र ।
सागरनन्दी-प्रसिद्ध नाट्यशास्त्री। इन्होंने 'नाटकलक्षणरत्नकोश' नामक नाट्यशास्त्र विषयक ग्रन्थ की रचना की है। इनका समय ११ वीं शताब्दी का मध्य माना जाता है। इनका वास्तविक नाम सागर था किन्तु नन्दी कुल में उत्पन्न होने के कारण सागरनन्दी हो गया। इन्होंने आधारभूत आचार्यों का नाम अपने प्रन्य में दिया है-श्रीहर्ष-विक्रमनराधिप-मातृगुप्तगर्गाश्मकुट्टनखकुट्टक-बादराणाम् । एषां मतेन भरतस्य मतं विगाह्म घुष्टं मया समनुगच्छत रत्नकोशम् ।। अन्तिम श्लोक । इस ग्रन्थ की रचना मुख्यतः भरतकृत 'नाट्यशास्त्र के आधार पर हुई है और 'नाट्यशास्त्र' के कई श्लोक ज्यों के त्यों उधृत कर दिये गए हैं। इसमें नाट्यशास्त्र से सम्बद्ध निम्नांकित विषयों पर विचार किया गया है-रूपक, अवस्थापञ्चक, भाषाप्रकार, अर्थप्रकृति, बंक, उपक्षेपक, सन्धि, प्रदेश, पताकास्थानक, वृत्ति, लक्षण, अलंकार, रस, भाव, नायिका-भेद तथा नायिका के गुण, रूपक एवं उपरूपक के भेद । इन्होंने शास्त्रीय दृष्टि से कई नवीन तथ्य प्रकट किये हैं। जैसे बत्तमान नृपति के चरित्र को सागरनन्दी ने अन्य का विषय बनाने का विचार प्रकट किया है पर अभिनवगुप्त के अनुसार वर्तमान नरपति के चरित को नाट्य की वस्तु नहीं बनाया जा सकता। इसकी पाण्डुलिपि सर्वप्रथम श्री सिलवांवी को नेपाल में प्राप्त हुई थी ( १९२२ ई० में )। तदनन्तर एम. डिलन द्वारा सम्पादित होकर यह ग्रन्थ लन्दन से ( ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ) १९३७ ई० में प्रकाशित हुआ। हिन्दी अनुवाद चौखम्भा विद्याभवन से प्रकाशित अनु० ५० बाबूलाल शास्त्री।
आधारग्रन्थ-भारतीय साहित्यशास्त्र-आचार्य बलदेव उपाध्याय ।
सामवेद-वैदिक संहिताबों में 'सामवेद' का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें 'गीतितत्व' की प्रधानता है जिसे उद्गाता नामक ऋत्विज् उच्चस्वर से गाता था [ दे. वेदपरिचय ) । इसका महत्व एक विशिष्ट कारण से भी अधिक है, जो अन्य वेदों में प्राप्त नहीं होता। इसकी ऋचाएं गेयता के कारण एक रूप होकर भी, अनेकात्मक होकर, विविध रूप धारण कर लेती हैं । 'बृहदेवता' में बताया गया है कि जो व्यक्ति साम को जानता है वही वेद का रहस्य जानता है। 'गीता' में श्रीकृष्ण ने अपने को 'सामवेद' कह कर इसकी महत्ता प्रदर्शित की है-'वेदानां सामवेदोऽस्मि' १०४२ । 'ऋग्वेद' और 'अथर्ववेद' भी 'सामवेद' की प्रशंसा करते हैं। 'ऋग्वेद' में कहा गया है कि जागरणशील व्यक्ति को ही साम की प्राप्ति होती है। निद्रा में लीन रहने वाला सामगान में प्रवीणता नहीं प्राप्त कर सकता [ ५२४४१४]। ___साम का अर्थ-ऋक्मन्त्रों के ऊपर गाये जाने वाले गान 'साम' शब्द के बोधक हैं तथा ऋक्मन्त्रों के लिए भी साम बन्द प्रयुक्त होता है । 'बृहदारण्यक उपनिषद्' में 'साम' की म्मुत्पत्ति दी गयी है। 'सा' का अर्थ है ऋषा और 'बम' का स्वर । म