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सांस्यदर्शन]
[सांख्यदर्शन
का कारण नित्य परिणामी (परिवर्तनशील) प्रकृति है, ईश्वर नहीं। ईश्वर नित्य, निर्विकार (अपरिणामी) तथा परमात्मा माना गया है। जो स्वयं परिणामी नहीं है वह किसी पदार्थ का निमित्त कारण कैसे होगा ? (२) यदि यह कहा जाय कि बड़ प्रकृति का संचालन करने के लिये किसी चेतन शक्ति की आवश्यकता है और वह ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं है, तो यह भी ठीक नहीं । सांस्य के अनुसार प्रकृति का नियमन और संचालन तो क्रिया है और ईश्वरवादी कहते हैं कि ईश्वर क्रिया नहीं करता। यदि ईश्वर का कोई उद्देश्य नहीं रहता तो फिर वह क्रिया करने में प्रवृत्त क्यों होगा ? यदि कहा जाय कि उसका कोई उद्देश्य नहीं रहता तो पूर्ण परमात्मा में अपूर्ण इच्छा या मनोरथ का रहना असंभव है। इसी प्रकार अन्य जीवों की उद्देश्यपूर्ति को ही ईश्वर का उद्देश्य माना जाय तो यह मत भी समीचीन नहीं है, क्योंकि बिना स्वार्थ के कोई दूसरे के उद्देश्य की पूत्ति नहीं करता। अतः ईश्वर की सत्ता असंदिग्ध हैं। संसार दुःख और पाप से पूर्ण है, अतः कहना ठीक नहीं कि ईश्वर प्राणियों के हितसाधन के लिए सृष्टि करता है। (३) ईश्वर में विश्वास करने पर जीवों की अमरता एवं स्वतन्त्रता खण्डित हो जाती है। जीव को ईश्वर का अंश माना जाय तो उसमें वह शक्ति दिखाई नहीं पड़ती। इन सब तथ्यों के आधार पर ईश्वर की सत्ता संदिग्ध हो जाती है, और प्रकृति को ही जगत् का मूल कारण मानना पड़ता है । अतः सांस्य निरीश्वरवादी दर्शन है। पर, विज्ञानभिक्षु तथा अन्य टीकाकार इसे ईश्वरवादी दर्षन स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार सृष्टि-क्रिया के प्रवत्तक के रूप में भले ही ईश्वर को न माना जाय पर ऐसे ईश्वर की कल्पना तो करनी ही पड़ेगी जिसके सामीप्य या सम्पर्क से प्रकृति में क्रियाशीलता मा जाती है। ऐसा ईश्वर नित्य तथा पूर्ण है, पर सांस्य इस मन को नहीं मानता।
सांस्यदर्शन वस्तुवाद तथा द्वित्ववाद का प्रतिपादक है। इसके अनुसार प्रकृति और पुल के द्वारा ही जगत् की सृष्टि होती है। प्रकृति भौतिक जगत् का मूल कारण है। वह सदा क्रियाशील तथा परिवर्तनशील है, किन्तु साथ-ही-साथ जड़ भी है। अतः उसकी जड़ता को दूर करने के लिए चैतन्यशक्ति पुरुष की आवश्यकता होती है । चेतन पुरुष के सम्पर्क से ही प्रकृति सृष्टि करती है तथा पुरुष की छाया प्राप्त करके ही उसमें मान आदि क्रियाएँ जाती है। पर, पुरुष की सन्निधि से प्रकृति में ही क्यों विकार उत्पन्न होता है और पुरुष में क्यों नहीं होता, तथा जड़ बुद्धि में ज्ञान कैसे उत्पन्न होता है, इसका समाधान सांख्य की युक्तियों से नहीं होता। फिर भी आत्मोन्नति, मुक्ति के साधन, दुःख-निवृत्ति तथा सृष्टि-प्रक्रिया के सिद्धान्त के कारण सांस्यदर्शन का महत्व असंदिग्ध है। ___ आधारमन्थ-१. इपियन फिलासफी-डॉ. एस. राधाकृष्णन् । २. भारतीय दर्शन-पं. बलदेव उपाध्याय । . दर्शन-संग्रह-डॉ. दीवान चन्द । ४. भारतीय दर्शनचटर्जी एवं दत्त (हिन्दी अनुवाद)।५. सांस्यतरवकौमुदी (हिन्दी व्याख्या)-डॉ. बाचा प्रसाद मिश्र । ६. सांख्यसूत्र-(हिन्दी अनुवाद) श्रीराम शर्मा । .. सांस्यकारिका