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सांख्यदर्शन]
[सांस्थदर्शन
सांख्यदर्शन-भारतीय दर्शन का प्राचीनतम सिवान्त जिसके प्रवर्तक कपिल हैं । इस विचारधारा का मूल ग्रन्थ कपिल-रचित 'तरवसमास' है जो अत्यन्त संक्षिप्त एवं सारगर्भित है । सांख्यदर्शन को अधिक स्पष्ट करने के लिए कपिल ने 'सांख्यसूत्र' नामक विस्तृत ग्रन्थ का प्रणयन किया है। 'तत्त्वसमास' में छोटे-छोटे केवल २२ सूत्र हैं, किन्तु 'सांस्यसूत्र' ६ अध्यायों में विभाजित है। उसकी सूत्रसंख्या ५३७ है । महर्षि कपिल के दो शिष्यों-आसुरि एवं पंचशिख-ने भी सांख्य-दर्शन पर पुस्तकें लिखी थी, किन्तु सम्प्रति वे अनुपलब्ध हैं। तत्पश्चात् ईश्वरकृष्ण ने 'सांख्यकारिका' नामक अत्यन्त प्रामाणिक एवं लोकप्रिय ग्रन्थ की रचना की जिस पर गौडपाद ने 'सांख्यकारिका-भाष्य' एवं वाचस्पतिमिश्र ने 'सांख्यतत्व-कौमुदी' नामक व्याख्या-प्रन्थ लिखे। सांस्यशास्त्र के अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थयों में विज्ञानभिक्षु-विरचित 'सांख्यप्रवचन-भाष्य' तथा 'सांख्यसार' है। इनका समय १५ वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है। विद्वानों का मत है कि संख्या से सम्बद्ध होने के कारण इसका नाम सांख्य पड़ा है। इसमें तत्त्वों को संख्या निर्धारित की गयी है। अतः संख्या को ही मूल सिद्धान्त होने के कारण इसका नाम सांख्य पड़ा है । सांख्य द्वैतवादी दर्शन है, क्योंकि यह प्रकृति तथा पुरुष दो तत्वों की ही मौलिकता सिद्ध करता है ।
तत्त्व-मीमांसा-सांख्यदर्शन में २५ तत्वों की मीमांसा की गयी है। इनके मर्म को जान लेने पर दुःखों से निवृत्ति हो जाती है और मनुष्य मुक्त हो जाता है। इन २५ तत्वों को चार भागों में विभाजित किया गया है। प्रकृति-यह तत्त्व सबका कारण होता है, पर किसी का कार्य नहीं होता। २-विकृति-कुछ तत्व किसी से उत्पन्न होते हैं, पर उनसे किसी अन्य की उत्पत्ति नहीं होती। ३-कुछ तत्व कार्यकारण दोनों ही होते हैं अर्थात् किसी से उत्पन्न होकर किसी के उत्पादक भी होते हैं, ये प्रकृति-विकति कहलाते हैं। ४-कार्य एवं कारण दोनों प्रकार के सम्बन्ध से शून्य तस्व जो न प्रकृति न विकृति कहे जाते हैं। इनका विवरण इस प्रकार हैप्रकृति-इसका नाम प्रधान, अव्यक्त एवं प्रकृति है जो संख्या में एक है। (ख) विकृति-इनकी संख्या १६ है-पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, मन और पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश ) (ग) प्रकृति-विकृति-इनकी संख्या सात हैमहत्तत्व, अहंकार, पञ्चतन्मात्र (शब्दतन्त्रमात्र, स्पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र, रसतन्मात्र, गन्धतन्मात्र) । (घ) न प्रकृति न विकृति अर्थात पुरुष १ । कुल योग २५ । इनका विवरण 'सांख्यकारिका' में इस प्रकार है-मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिनं विकृतिः पुरुषः ॥ ३ सांख्यदर्शन का महत्वपूर्ण सिदान्त सत्कायंवाद है।
सत्कार्यवाद-यह कार्य-कारण का विशिष्ट सिद्धान्त है जो सांस्यदर्शन का मूलाधार भी है। इसमें यह विचार किया गया है कि कार्य की सत्ता कारण में रहती है या नहीं; अर्थात विविध प्रकार की सामग्री एवं प्रयत्न से कार्य की उत्पति होती है क्या उत्पत्ति से पूर्व कार्य कारण में विद्यमान रहता है या नहीं? न्याय-बैशेषिक इसका
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