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शुकसप्तति]
[शुकसन्देश
शब्दार्थयोः समो गुम्फः पाञ्चाली रीतिरिष्यते। शीलाभट्टारिकावाचि बाणोक्तिषु च सा यदि ॥ [पांचाली रीति में शब्द एवं अर्थ दोनों का समान गुम्फन होता है । ऐसी रीति कहीं तो शीला भट्टारिका की कविता में और कहीं बाणभट्ट की उक्तियों में है ] । इनके कुछ इलोक प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । निम्नांकित श्लोक काव्यप्रकाश में उद्धृत है। यः कौमारहरः स एव हि वरस्ता एव चैत्रक्षपास्ते चोन्मीलितमालतीसुरभयः प्रौढाः कदम्बानिलाः । सा चौवास्मि तथापि तत्र सुरतव्यापारलीलाविधी रेवारोधसि वेतसीतरुतले चेतः समुत्कप्ठते ।।
आधारग्रन्थ-संस्कृत सुकवि-समीक्षा-पं० बलदेव उपाध्याय ।
शुकसप्तति-संस्कृत का लोक-प्रचलित कथाकाव्य । इसमें कहानियों का अत्यन्त रोचक संग्रह है। इस पुस्तक में एक सुग्गे द्वारा, अपनी स्वामिनी को कथा सुनाई गयी है, जो अपने स्वामी के परदेश जाने पर अन्य पुरुषों की ओर आकृष्ट होती है। सुग्गा उसे कहानी सुनाकर ऐसा करने से रोकता है। इसकी दो वचनिकाएं उपलब्ध होती हैं--एक विस्तृत और दूसरी संक्षिप्त । विस्तृत वचनिका के रचयिता चिन्तामणिभट्ट नामक व्यक्ति हैं जिनका समय १० वीं शताब्दी है। चिन्तामणि ने पूर्णभद्र के पन्चतन्त्र का उपयोग किया था। संक्षिप्त संस्करण का लेखक कोई जैन है। हेमचन्द्र ने भी शुकसप्तति का उल्लेख किया है। इसके अनेक अनुवाद अन्य भाषाओं में हुए हैं। चौदहवीं शताब्दी में इसका एक अपरिष्कृत फारसी अनुवाद हुआ था। फारसी अनुवाद के माध्यम से इसकी बहुत-सी कथायें एशिया से यूरोप में पहुंच गयी थीं। डॉ. स्मिथ ने शुकसप्तति के दोनों विवरणों का जर्मन अनुवाद के साथ लाइपजिग से प्रकाशित कराया था। इसका प्रकाशन-काल १८३६ ई० (संक्षिप्त विवरण ) एवं १८४६ ई. (विस्तृत विवरण ) है [ हिन्दी अनुवाद सहित चौखम्बा विद्याभवन से प्रकाशित, अनु० श्रीरमाकान्त त्रिपाठी ]
शुकसन्देश-इस सन्देश काव्य के रचयिता कवि लक्ष्मीदास हैं। इनका समय १५ वीं शताब्दी है। कवि मालावार प्रान्त का रहने वाला है। इनकी एक मात्र रचना 'शुकसन्देश' है। इस काव्य में गुणकापुरी के दो प्रेमी-प्रेमिकाओं का वर्णन है । शरद् ऋत की रात्रि में दोनों ही प्रेमी-प्रेमिका सुखपूर्वक शयन कर रहे हैं । नायक स्वप्न में अपने को अपनी प्रिया से दूर पाता है और वह रामेश्वरम् के निकट रामसेतु के पास पहुंच गया है। वह स्वप्न में अपनी पत्नी के पास शुक के द्वारा सन्देश भेजता है। इसमें रामेश्वरम् से गुणकापुरी तक के मार्ग का वर्णन किया गया है। यह काव्य मेघदूत के अनुकरण पर रचित है। इसमें भी दो भाग हैं और प्रथम में मार्गवर्णन एवं द्वितीय में सन्देश-कथन है। सम्पूर्ण काव्य में मन्दाक्रान्ता छन्द प्रयुक्त हुआ है। केरल प्रान्त के ऐतिहासिक एवं सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से यह काव्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसमें प्रकृति का अत्यन्त मनोरम चित्र उपस्थित किये गए हैं। अपनी प्रेयसी का वर्णन नायक के शब्दों में सुनें-सा कान्तिः सा गिरि मधुरता शीतलत्वं तदङ्ये सा सौरभ्योद्गतिरपि सुधासोदरः सोऽधरोष्ठः । एकास्वादे भृशमतिशयादन्यलाभेन यस्मिन्नेकीभावं व्रजति विषयः सर्व एवेन्द्रियाणाम् ॥ २॥३५॥