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श्रीहर्ष 1
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[ श्रीहर्ष
उमेश्वरात् २२।१५३ वे अपनी माता के चरणोपासक थे, इसका संकेत इनके महाकाव्य हैं— मातृचरणाम्भोजालिमोले : १२।११३ | श्रीहर्ष कान्यकुब्जेश्वर विजयचन्द्र एवं उनके पुत्र जयन्तचन्द्र दोनों के ही दरबार में थे। जयन्तचन्द्र इतिहास प्रसिद्ध कन्नोज नरेश जयचन्द्र ही हैं, किन्तु श्रीहर्ष के समय में इनकी राजधानी काशी में थी। दोनों पितापुत्रों का समय ११५६ ई० से लेकर ११९३ ई० तक है । एक किंवदन्ती के अनुसार उनके पिता श्रीहीर का 'न्यायकुसुमांजलि' के प्रणेता प्रसिद्ध नैयायिक उदयनाचार्य के साथ शास्त्रार्थं हुआ था, जिसमें उनकी पराजय हुई थी। कहा जाता है कि इस पराजय से लज्जित होकर दुःख में उन्होंने शरीर त्याग कर दिया था और मरते समय अपने पुत्र को आदेश दिया था कि वह अपनी विद्वत्ता से शत्रु को परास्त कर उससे बदला ले। श्रीहर्ष ने एक वर्ष तक गङ्गातीर पर चिन्तामणिमन्त्र का जाप कर त्रिपुरसुन्दरी की आराधना की थी तथा देवी ने प्रकट होकर इन्हें अपराजेय पाण्डित्य का वरदान दिया था । श्रीहर्षं वर प्राप्त कर राजा के दरबार में गए किन्तु उनकी वाक्यावली इतनी दुरूह थी कि लोग उनकी बातें समझ न सके। कहते हैं कि उन्होंने पुनः देवी की आराधना की । देवी ने कहा कि तुम रात्रि में सिर गीला कर दही पी लेना, इससे तुम्हारा पाण्डित्य कम हो जायगा । श्रीहर्ष ने देवी के आदेश का पालन किया । तत्पश्चात् वे महाराज विजयचन्द्र की सभा में गए और उन्हें अपना यह इलोक सुनाया — गोबिन्दनन्दनतया च वपुः श्रिया च माsस्मिन् नृपे कुरुत कामधियं तरुण्यः । अस्त्रीकरोति जगतां विजये स्मरः स्त्री-रस्त्रीजनः पुनरनेन विधीयते स्त्री ॥ "तरुणियां राजा विजयचन्द्र को केवल इस लिए कामदेव न समझ लें, कि यह गोविन्द का पुत्र है ( कामदेव भी प्रद्युम्न रूप में गोबिन्द ( कृष्ण ) के पुत्र हैं ) और शरीर से ( कामदेव जैसे ) सुन्दर हैं । कामदेव में और इस राजा में तास्विक भेद है । कामदेव तो संसार को जीतने के लिए स्त्रियों को अस्त्र बनाता है, और यह राजा युद्ध में लड़ने आये हुए अस्त्रधारी शत्रु-वीरों को पराजित कर ( या भगाकर ) स्त्री के समान पुरुषत्वरहित बना देता है।" श्रीहर्ष ने जयचन्द्र के पिता विजयचन्द्र के नाम पर 'विजयप्रशस्ति' की भी रचना की है । 'तस्य श्रीविजयप्रशस्तिरचना तातस्य नव्ये' महाकवि ने स्वयं अपने महाकाव्य में लिखा है कि ५।१६८ काश्मीर में उसके काव्य को अधिक महत्व प्राप्त हुआ - काश्मीर महतीं चतुर्दशतयों विद्यां विदद्भिर्महा । १६।१६१
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दरबार में अपने पिता के शत्रु को देखकर भी उन्होंने यह श्लोक पढ़ा - साहित्ये सुकुमारवस्तुनि दृढन्यायग्रसन्धिले तर्फे वा मयि संविधातरि समं लीलायते भारती । शय्या वाऽस्तु मृदूतरच्छदवती दर्भाकुरेरास्तृता भूमिर्वा हृदयङ्गमो यदि पतिस्तुल्या रतिर्योषिताम् ॥ तथा उसे शास्त्रार्थ के लिए ललकारा जिसका अभिप्राय यह था कि सुकुमार साहित्य एवं न्यायबन्ध से जटिल तर्क पर उन्हें समान अधिकार है । श्रीहर्ष का पाण्डित्य देखकर वह व्यक्ति उनकी प्रशंसा करने लगा और उसने अपनी पराजय स्वीकार कर ली। श्रीहर्ष की प्रतिभा पर मुग्ध होकर राजा ने उन्हें अपना सभा पण्डित बना दिया। श्रीहर्ष केवल उच्चकोटि के कवि ही नहीं थे, वे उन्नत योगी एवं महान् साधक भी थे। उन्होंने स्वयं भी इस तथ्य को स्वीकार किया है-यः साक्षात्कुरुते