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सन्देशकाम्य]
( ६३८)
[सन्देशकाव्य
पूर्व एवं उत्तर। पूर्वभाग में नायक या नायिका का वर्णन विरही के रूप में किया जाता है। इसके बाद दूत का दर्शन, उसका विरही द्वारा स्वागत एवं प्रशंसा तथा उसकी शक्ति एवं सामर्थ्य का वर्णन किया जाता है। पुनः उससे सन्देश पहुंचाने की प्रार्थना की जाती है और गन्तव्य स्थान का मार्ग बतलाया जाता है। यहां तक पूर्वभाग की समाप्ति हो जाती है। उत्तरभाग में गन्तव्य नगरी का वर्णन, प्रिय या प्रिया के निवासस्थान का विवरण तथा नायक या नायिका की विरहदशा एवं सज्जन्य संभावना का कथन किया गया है। तदनन्तर सन्देश सुनाने की प्रार्थना की जाती है तथा सन्देश की सत्यता की पुष्टि के लिए उसे सन्देश भेजने वाले की विशेषताओं एवं अन्तरंग जीवन की गुप्त घटनाओं की चर्चा करनी पड़ती है । अन्त में सन्देशवाहक के प्रति शुभकामना प्रकट करते हुए काव्य की समाप्ति हो जाती है। महाकवि कालिदास के 'मेघदूत' का यही वयंविषय है तथा परवर्ती कवियों ने भी कतिपय परिवर्तनों के साथ यही कथानक रखा है। सन्देशकाव्य का प्रधान रस वियोग शृङ्गार होता है जिसमें प्रकृति को माध्यम बना कर नाना प्रकार की चेष्टाओं एवं भंगिमाओं का वर्णन किया जाता है।
कालान्तर में सन्देशकाव्य में नवीन भावों का समावेश हुआ और जैनकधियों तथा भलकवियों द्वारा धार्मिक, भक्तिपरक एवं दार्शनिक रचनायें प्रस्तुत की गयीं। जैन मुनियों द्वारा नवीन उद्देश्य से अनुप्राणित होकर ही सन्देशकाव्य लिखे गए जिनमें शृङ्गारिक वातावरण को धार्मिक रूप देकर नई दिशा की ओर मोड़ दिया गया है। सन्देशकाव्य क्रमशः लोकप्रिय होते गए और उत्तरवर्ती भक्तकवियों ने 'रामायण', 'महाभारत' एवं 'भागवत' के उदात्त चरितनायकों के जीवन को आश्रय बना कर सन्देशकाव्यों की रचना की। विप्रलम्भ श्रृंगार एवं भक्ति-भावना को लेकर चलनेवाले सन्देशकाव्यों में कोमल तथा मधुर भावनाओं का प्राधान्य है। इनमें विरह की अत्यन्त ही मार्मिक एवं सर्वाङ्गीण छबि चित्रित की जाती है जो अन्यत्र दुर्लभ है। "गुरुवियोग में शिष्य की भावविह्वलता, कृष्णवियोग में गोपियों की आतुरता तथा भक्तकवियों को प्रभुपरायणता का इन काव्यों में बड़ा ही भावपूर्ण चित्रण किया गया है। भावों को कोमलता तथा मधुरता के अनुरूप भाषा भी बड़ी सरल तथा प्रसादपूर्ण देखने में आती है। माधुर्य और प्रसादगुण के साथ-साथ वैदर्भी रीति का सन्देशकाव्यों में परम उत्कर्ष पाया जाता है ।" संस्कृत के सन्देशकाव्य पृ० ४१ । सन्देशकाव्य में अधिकतर मन्दा. क्रान्ता छन्द प्रयुक्त हुआ है, पर कतिपय कवियों ने शिखरिणी, वसन्ततिलका, मालिनी तथा शार्दूलविक्रीडित जैसे छन्दों का भी प्रयोग किया है।
सन्देशकाव्य की प्रथम रचना 'मेघदूत' एवं घटकपर कवि विरचित 'घटकपरकाव्य' है। इनमें से किसकी रचना प्रथम है, इसका निश्चय अभी तक नहीं हो सका है। 'मेघदूत' की भावानुभूति 'रामायण' से प्रभावित है, तो 'घटकपरकाव्य' पर 'महाभारत' का ऋण है। इस कवि का वास्तविक नाम अभी तक अज्ञात है। अभिनवगुप्ताचार्य ने इस पर टीका लिखी है जिसमें उन्होंने इसे कालिदास की रचना माना है [दे० अभि