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संस्कृत महाकाव्य ]
(६२७)
[संस्कृत महाकाव्य
'रघुवंश' एवं 'कुमारसम्भव'-में कथावस्तु का प्राचुर्य होते हुए भी भावव्यम्जना, वस्तुव्यंजना एवं अभिव्यंजना-शिल्प का निखार दिखाई पड़ता है। उन्होंने मानव एवं प्रकृति के बीच एक ही भावधारा का पहवन कर दोनों में परस्पर सम्बन्ध दिखलाया है, और प्रकृति को मानवीय स्तर पर लाकर उसमें नवीन प्राणवत्ता ला दी है। उन्होंने 'रघुवंश' में रघुवंशी राजाओं का वर्णन किया है [ दे० रघुवंश ] तथा 'कुमारसम्भव' में शिव-पार्वती-विवाह का वर्णन है [ दे० कुमारसंभव] । कालिदास के बाद संस्कृत महाकाव्य में नया मोड़ आया और 'विचित्रमार्ग' की स्थापना हुई। इस कोटि की रचनाएं संस्कृत के ह्रासोन्मुख-काल की कृति हैं, जिनमें कवियों ने अपने आश्रयदाताओं की यशोगाथा का गान किया है। कालिदास ने जनसाधारण के अनुरंजन को लक्ष्य बनाकर सरस, सरल एवं बोधगम्य शैली में जन-मानस का हृदयावर्जन किया था, किन्तु परवर्ती काल के कवियों ने पाण्डित्यमय वातावरण में साहित्यिक गरिमा प्रदर्शित करने का प्रयास किया। कालिदास के बाद प्राकृत भाषाएँ जनसाधारण में बद्धमूल हो गयी थी और संस्कृत केवल पंडितों की भाषा रह गयी थी। अतः, युगचेतना एवं सामाजिक मान्यताओं के आधार पर साहित्य की विशिष्ट शैली का जन्म हुआ। कवियों ने युग की विशिष्टता एवं साहित्यिक चेतना के अनुरूप कालिदास की रसमयी पद्धति का परित्याग कर अलंकृत शैली को अपनाया जिसमे विषय की अपेक्षा वर्णन-प्रकार पर अधिक ध्यान दिया गया था, और सरलता के स्थान पर पांडित्य प्रदर्शन की भावना की प्रबलता थी। इस युग के कवियों ने महाकाव्यों को अधिक अलंकृत, सुसज्जित एवं वोझिल बनाने के लिए दर्शन एवं कामशास्त्र जैसे शास्त्रों का भी उपयोग किया। महाकवि भारवि ही इस नवीन शैली ( विचित्र मार्ग) के प्रवर्तक थे और माघ तथा श्रीहर्ष ने इसे और भी अधिक परिष्कृत तथा विकसित किया। महाकाव्य लेखन की इस नवीन शैली को कुंतक ने 'विचित्रमार्ग' की संज्ञा दी। कालिदास आदि के महाकाव्यों के विषय विस्तृत एवं जीवन का विस्तार लिये होते थे। उनमें विशाल पटभूमि पर जीवन की सारी समस्याओं का निदर्शन किया जाता था, पर भारवि आदि ने कथावस्तु के विस्तार की ओर ध्यान न देकर वस्तुव्यंजना पर ही अधिक बल दिया। सन्ध्या, सूर्य आदि तथा जलक्रीड़ा प्रभृति शृङ्गारी वर्णनों तथा अस्त्रशस्त्रों की फिहरिस्त जुटाने में इन्होंने सगं-के-सगं खत्म कर दिये। उन्होंने शैली के क्षेत्र में वाल्मीकि और कालिदास की स्वाभाविक एवं रसपेशल शैली की अवहेलना कर अलंकार के भार से दबी हुई तथा श्लेष एवं यमक के प्रयोग से जटिल बनी हुई दुरूह शैली का प्रयोग किया और बागे चलकर महाकाव्य चित्रकाव्य बन गए और यमक तथा श्लेषप्रधान काव्य की रचना प्रारम्भ हुई। यर्थक एवं व्यर्थक महाकाव्यों की रचना होने लगी फलतः 'राघव. पाण्डवीय', 'राघवनैषधीय' एवं 'राघवपाण्डवयादवीय' सदृश महाकाव्य लिखे गए । इस प्रकार कालिदासोत्तर काल के महाकाव्यों में पाण्डित्यप्रदर्शन, शैली की विचित्रता, अक्षराडंबर, अलंकार-विन्यास एवं वर्णन-बाहुल्य की प्रधानता हुई और महाकाव्य सहज एवं सुकुमार मार्ग को छोड़कर विचित्र मार्ग की मोर उन्मुख हुए जिसे ऐतिहासिकों ने ह्रासोन्मुखी रचना की संज्ञा दी है। इन महाकाव्यों में अलंकृत शैली का निकट रूप