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शंकराचार्य ]
( ६०२ )
[ शंकराचार्य
का विवेचन । ३३. विवेकचूड़ामणि - ५८१ पद्यों में वेदान्ततत्व का प्रतिपादन । ३४. वैराग्यपञ्चक– ५ श्लोकों में वैराग्य का वर्णन । ३५. शतश्लोकी - १०० लोक में वेदान्त का वर्णन । ३६. षट्पदी - ६ पद्यों का ग्रन्थ । ३७. सदाचारानुसन्धान - ५५ श्लोकों में चित्ततस्व का प्रतिपादन । ३५. सर्ववेदान्तसिद्धान्त संग्रह१००६ श्लोकों में वेदान्त के सिद्धान्त का निरूपण । ३९. स्वात्म-निरूपण - १५६ इलोकों में आत्मतत्व का विवेचन । ४०. स्वात्म प्रकाशिका - ६० श्लोकों में आत्मतत्व का वर्णन |
आचार्य शंकर के ग्रन्थों में पाण्डित्य के अतिरिक्त सरल काव्य का भी सुन्दर समन्वय है । उनका 'सौन्दर्यलहरी' नामक ग्रन्थ संस्कृत के स्तोत्रग्रन्थों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। उनकी कविताओं में कल्पनातस्व, भावतस्व, कलातस्व एवं बुद्धितत्व का सम्यक् स्फुरण है । 'सौन्दर्यलहरी' में कल्पना की ऊँची उड़ान, भावों की रमणीयता तथा अर्थों का नाविन्य देखने योग्य है । भगवती कामाक्षी का वर्णन काव्य की दृष्टि से अत्यन्त सरस एवं मनोरम है - तनोतु क्षेमं नस्तव वदन सौन्दर्यलहरीपरीवाहः स्रोतःसरणिरिव सीमन्तसरणी । वहन्ती सिन्दूरं प्रबलकबरीभारविमिर-द्विषां वृन्दै वन्दीकृत मिब नवीन किरणम् । पद्य के अतिरिक्त गद्य लेखन में भी आचार्य की पटुता दिखलाई पड़ती है । उनका 'शारीरकभाष्य' संस्कृत गद्य की महान् रचनाओं में परिगणित होता हैं जिसमें प्रौढ़ गद्यशैली के दर्शन होते हैं । स्वयं अद्वैतवादी होते हुए भी आचार्य ने - अपने स्तोत्रग्रन्थों में विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना की है। इससे पता चलता है कि वे सिद्धान्तः अद्वैतवादी होते हुए भी व्यवहार भूमि में उपासना का महत्त्व स्वीकार करते थे ।
शंकराचार्य का प्रधान लक्ष्य वैदिक धर्म का प्रचार करना था। उनके पूर्व अवैदिक धर्मावलम्बियों ने वैदिक धर्म की निन्दाकर तत्कालीन जनता के हृदय में वैदिक मत के प्रति श्रद्धा का भाव भर दिया था। आचार्य शंकर ने अपने अलौकिक वैदुष्य के द्वारा समस्त अवैदिक मतों की धज्जियां उड़ा दीं तथा बड़े-बड़े बौद्ध विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त कर आर्यावर्त में सनातन या वैदिक धर्म की ध्वजा लहरा दी। उन्होंने धर्मस्थापन को स्थायी बनाने के लिए सन्यासियों को संघबद्ध किया तथा भारतवर्ष की चारों दिशाओं में चार प्रधान मठों की स्थापना की । इन्हें ज्योतिमंठ ( जोसी मठ बदरिकाश्रम के निकट ) शृङ्गेरीमठ ( रामेश्वरम् में ), गोवर्धनमठ ( जगन्नाथपुरी ) तथा शारदामठ ( द्वारिकापुरी में ) कहते हैं। इन मठों का अधिकार क्षेत्र निर्धारित कर आचार्य ने सम्पूर्ण भारतवर्ष को चार क्षेत्रों में विभाजित कर एक-एक क्षेत्र का अधिकार एक-एक मठाधिपति को प्रदान किया। मठ के अध्यक्षों का प्रधानकार्य था अपने अन्तर्गत पड़ने वाले क्षेत्रों में वर्णाश्रमधर्म के अनुसार व्यवस्था स्थापित करते हुए धर्मोपदेश देना तथा वैदिक धर्म की रक्षा करना । मठों के अध्यक्ष शंकराचार्य के प्रतिनिधि स्वरूप
माने जाते हैं एवं उन्हें शङ्कराचार्य कहा जाता है। पट्टशिष्य अधिष्ठित हुए। उन्होंने गोवर्धन मठ का वष्यक्ष पृथ्वीधर या हस्तामलक को, शारदापीठ का
चार मठों के ऊपर इनके चार अध्यक्ष पद्यपाद को, शृङ्गेरी का अध्यक्ष विश्वरूप या सुरेश्वर को