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संगीतवान]
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[संगीत
थी और उस युग के सूत्रधार श्रीकृष्ण स्वयं भी गत बड़े संगीत एवं वंशीवादक थे।
पाणिनि की 'अष्टाध्यायी', कौटिल्य के 'मशास्त्र' तथा भास एवं कालिदास अन्यों में संगीत तथा अन्य ललितकलाबों के प्रमर के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। गुप्तयुग भारतीय कला का तो स्वर्णयुग माना हो जाता है और सम्राट् समुद्रगुप्त की संगीतप्रियता इतिहास प्रसिद्ध है । गुप्तयुग में संगीतशास्त्र पर अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं । संगीतशास्त्र के अन्ध-संस्कृत में संगीतशास्त्रविषयक प्रथम वैज्ञानिक बन्द भरतकृत 'नाव्यशास' है। इसमें भरतमुनि ने तत्कालीन संगीतों की प्रविधि का अत्यन्त सुन्दर विवेचन किया है । भरत ने नाट्यशास्त्र के २८,२९ एवं ३० अध्यायों में इस विषय का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है और कतिपय पूर्ववर्ती भाचार्यों का भी उल्लेख किया है। भरत से पूर्व नारदमुनि ने संगीतशास्त्र का प्रतिपादन किया था जिनका ऋण 'नाट्यशास्त्र' में स्वीकार किया गया है (नाध्यशास्त्र ०४२८) । गान्पर्व के विवेचन में भरत मे नारद को ही अपना उपजीव्य माना है। अभिनवगुप्त ने भी इस तथ्य को स्वीकार किया है-प्रीतिविवधमिति नारदीय-निबंधनं सूचितम्अभिनवभारती मध्याय २८ श्लोक. ९। संगीत के प्राक् भरत आचार्यों में विशाखिलाचार्य का भी नाम आता है। भरत ने अनेक समकालीन आचार्यों का भी उल्लेख किया है जिनमें नन्दिन्, कोहल, काश्यप, शार्दूल तथा दत्तिल प्रसिद्ध हैं। दतिल एवं कोहल की एक संयुक्त रचना 'दत्तिलकोहलीयम्' हस्तलिखित रूप में सरस्वती महल पुस्तकालय, तंजोर में सुरक्षित है। नवीं शताब्दी के उत्पलाचार्य को अभिनवगुप्त ने सङ्गीतशाम का प्रामाणिक आचार्य माना है। भरतमुनि के पश्चात संस्कृत में सङ्गीतशास्त्रविषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों का लेखन प्रारम्भ हुआ। ऐसे लेखकों में मतङ्ग या मातङ्ग का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने 'बृहद्देशीय' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इनका समय छठी शताब्दी है। मताने ग्राम रोगों के सम्बन्ध में भरत कों उद्धृत किया है । ये बांसुरी के आविष्कारक भी माने जाते हैं । शाङ्गदेव ने अपने ग्रन्थ में कम्बल, अश्वतर तथा मांजनेय मुनि का उल्लेख किया है जो भरतोतर प्रसिद्ध आचायो में थे। इन्होंने भरत के मत में सुधार करते हुए पंचमी, मध्यमा एवं पज मध्यमा के सम्बन्ध में नयी व्यवस्था दी थी। अभिनवगुप्त ने भट्टमातृगुप्त, लाटमुनि तथा विधानाचार्य प्रभृति संगीतशास्त्रियों का उल्लेख किया है तथा 'संगीतरत्नाकर' की टीका में विश्वावसु, उमापति तथा पाश्र्वदेव आदि शास्त्रकारों के भी नाम आते हैं। सम्प्रति इनके अन्य प्राप्त नहीं होते किन्तु अभिनवगुप्त एवं चाङ्गदेव के समय में ये अवश्य ही उपलब्ध रहे होंगे। सङ्गीतशाम के सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण कार्य शाङ्गदेव का है जिनका समय १२१० ई० है। इनके पूर्व पार्वदेव ने 'संगीतसमयमार', एवं सोमनाथ ने 'रागविबोध' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। नान्यदेवकृत 'सरस्वती हृदयालपुर (१०९६-११३७ ई.) नामक अन्य में दाक्षिणात्य, सौराष्ट्री, मुबंरी बंगाली तथा सैन्धवी प्रभूति देशी रागों का विवेचन किया गया है। शादेव, 'सङ्गीतरत्नाकर' बपने विषय का प्रौढ़ पन्य है। इस परमशिनाथ (१४५६-१४७७६०) ने विस्तृत टीका लिखी है। पाव देवगिरि के राजा सिंघन के दरबार में रहते थे।