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संस्कृत नाटक]
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[संस्कृत नाटक
अनूठा हास्य-चित्रण, सरस तथा सद्यः प्रत्यभिज्ञेय शैली एवं समकालीन समाज का वास्तविक चित्र उभारने के कारण संस्कृत नाटकों का आज भी शृङ्गार बना हुआ है।
महाकवि अश्वघोष-कृत तीन नाटक उपलब्ध हुए हैं जिन्हें डॉ० लूडसं ने १९१० ई० में मध्य एशिया के तूर्फान नामक स्थान में प्राप्त किया था। इनमें दो अधूरे हैं और एक नौ अंकों 'शारिपुत्रप्रकरण' है जिस पर भगवान बुद्ध के उपदेश का प्रभाव है । महाराज हर्षवर्धन की तीन रचनाएं प्राप्त होती हैं, जिनमें दो नाटिकाएं-'प्रियदर्शिका' एवं 'रत्नावली' हैं तथा एक रूपक है 'नागानन्द' । प्रथम दो नाटिकाओं में वत्सराज उदयन की प्रेम-कथा है तथा 'नागानन्द' में विद्याधर जीमूतवाहन द्वारा नागों को गरुड़ से बचाने की कथा वर्णित है। कथानक के गठन की दृष्टि से 'रत्नावली' उच्चकोटि की रचना सिद्ध होती है और इसमें शृङ्गाररसोपयुक्त प्रसाद गुण युक्त सरस शैली प्रयुक्त हुई है। भट्ट नारायण कृत 'वेणीसंहार' संस्कृत का वीररसप्रधान नाटक है। इसकी रचना ६ अंकों में हुई है और नाटक के शास्त्रीय नियमों का कठोरतापूर्वक नियोजन किया गया हैं। इसीलिए इसे नाट्यशास्त्रीय एवं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में बड़ी प्रसिद्धि प्राप्त हुई है। इसकी कथा पौराणिक है और महाभारत की एक प्रसिद्ध घटन को कथा का विषय बनाया गया है, और वह है, दुर्योधन के रक्त से रंजित हाथोंसेभीमसेम का द्रोपदी के केशों को बांधना। इसकी शैली ओजगुण से युक्त है तथा कई ओजपूर्ण संवादों का नियोजन किया गया है। द्वितीय अंक में कवि ने दुर्योधन एवं उसकी पत्नी भानुमती के प्रेम-प्रदर्शन का अस्वाभाविक चित्रण कर रस की दृष्टि से अनौचित्य उपस्थित कर दिया है, जिसे आचार्यों ने अकाण्ड-प्रथन दोष की संज्ञा दी है।
विशाखदत्त ने 'मुद्राराक्षस' नामक महान् नाट्यकृति की रचना की है जिसमें राजनैतिक दांवपेंच एवं कूटनीति की प्रधानता है। इसमें चाणक्य एवं सक्षस कीटनीतिक चालों का रसात्मक वर्णन है जिसे आचार्यों ने नाटकीय प्रविधि की सफलता के कारण शकुन्तला के समकक्ष माना है। इसमें शृङ्गार रस एवं स्त्री पात्रों तथा हास्य का अभाव है जो कवि की अनूठी कल्पना के रूप में प्रतिष्ठित है। कवि ने विषय के अनुरूप शैली का गठन किया है। संस्कृत नाटककारों में कालिदास के बाद. महाकवि भवभूति का स्थान सर्वथा गौरवास्पद है। इनके तीन नाटक हैं-'मालतीमाधव', 'महावीरचरित' एवं 'उत्तररामचरित' । 'महावीरचरित' प्रथम नाट्यकृति है जिसमें रामचरित को नाटकीय रूप दिया गया है । राम-विवाह से लेकर रामराज्याभिषेक तक की घटनाएं इसमें वर्णित हैं। 'मालतीमाधव' दस अंकों का प्रकरण है तथा इसकी कथा काल्पनिक है। इसमें मालती एवं माधव की प्रणय-कथा के माध्यम से कवि ने यौवन के उन्मादक प्रेम का चित्रण किया है। 'उत्तररामचरित' भवभूति की सर्वश्रेष्ठ रचना एवं संस्कृत नाट्यसाहित्य का गौरव है। इसमें कवि ने उत्तर सीता-चरित का अत्यन्त करुण वर्णन किया है । इस नाटक में करुण रस का सफल चित्रण कर भवभूति ने उसकी रसराजता सिद्ध की है । इसकी रचना सात अंकों में हुई है। भवभूति ने गीतिनाट्य की रचना की है जिसमें कवित्व एवं पाण्डित्य का अद्भुत सम्मिश्रण है। भवभूति प्रहति से