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संस्कृत नाटक]
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[संस्कृत नाटक
गम्भीर हैं और इनकी : यह गंभीरता इनकी बौद्धिकता के रूप में नाटकों में रूपायित हुई है। इन्होंने प्रकृति के उग्र रूप का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है। भाषा पर तो इनका असाधारण अधिकार है। इनके नाटकों में हास्य का अभाव है और रंगमंचीय दृष्टि से कई प्रकार के दोष दिखाई पड़ते हैं। भवभूति का कवि भावुकता की सीमा का अतिक्रमण कर अपने नाटकों को पाठ्य बना देता है। इन्होंने जीवन के कोमल, कटु, रोद्र एवं बीभत्स सभी पक्षों का समान अधिकार के साथ सुन्दर चित्रण किया है। दाम्पत्य जीवन के आदर्श रूप को चित्रित करने में भवभूति ने संस्कृत के सभी कवियों को पीछे छोड़ दिया है। ____ संस्कृत के अन्य नाटककारों में अनेक व्यक्ति माते हैं। परवर्ती नाटककारों की प्रवृत्ति अनावश्यक वर्णनों एवं काव्यशैली के चाक्यधिक्य की ओर गयी, फलतः संस्कृत में काव्य-नाटकों की बाढ़-सी आ गयी है। ऐसे नाटकों को ऐतिहासिकों ने ह्रासोन्मुखी काव्यशैली का नाटक कहा है । ऐसे नाटककारों में मुरारि आते हैं जिन्होंने 'अनघराघव' नामक नाटक की रचना की है। इसमें रामचरित को नाटकीय विषय बनाया गया है तथा कवि का ध्यान विविध शास्त्रों के पाण्डित्य-प्रदर्शन तथा पदलालित्य की ओर अधिक है। इसमें नाटकीय व्यापारों का सर्वथा अभाव है एवं नाटक अनावश्यक वर्णनों एवं ललित पदों के भार से बोझिल हो उठा है। कवि ने लम्बे-लम्बे छन्दों का अधिक वर्णन कर नाटकीय औचित्य एवं सन्तुलन को खो दिया है। इनके बाद के नाटककारों पर मुरारि का ही अधिक प्रभाव दिखाई पड़ता है । ____ भवभूति के पश्चात् एक प्रकार से संस्कृत नाटकों का ज्वलन्त युग समाप्त हो जाता हैं और ऐसे नाटकों की रचना होने लगती है जो नाम भर के लिए नाटक हैं। नवम शताब्दी के आरम्भ में शक्तिभद्र ने 'आश्चर्यचूडामणि' नामक नाटक की रचना की जिस में शूर्पणखा-प्रसङ्ग से लेकर लंका-विजय एवं सीता की अग्नि-परीक्षा तक की राम-कथा वर्णित है। इसी शताब्दी के अन्य नाटककारों में 'हनुमन्नाटक' के रचयिता दामोदर मिश्र एवं राजशेखर हुए। राजशेखर ने तीन नाटक एवं एक सट्टक-'कपूरमंजरी'लिखा । तीन नाटक हैं-'विशालभंजिका', 'बालरामायण' एवं 'बालमहाभारत' । 'विशालभंजिका' चार अंकों की नाटिका है तथा 'बालरामायण' दस अंकों का महानाटक है, जिसमें रामायण की कथा का वर्णन है । 'बालमहाभारत' के दो ही अंक उपलब्ध हुए हैं। राजशेखर ने अपने नाटकों में लम्बे-लम्बे वर्णनों का समावेश किया है जो नाट्यकला की दृष्टि से उपयुक्त नहीं है। इनकी प्रतिभा महाकाव्यलेखन के अधिक उपयुक्त थी। इन्होंने शार्दूलविक्रीड़ित जैसे लम्बे छन्द का अधिक प्रयोग किया है। 'हनुमन्नाटक' १४ अंकों का महानाटक है जिसमें प्राकृत का प्रयोग नहीं है और गद्य से अधिक पक्षों की संस्था है। बौर बाचार्य दिङ्नाग (१००० ई.) ने 'कुन्दमाला' नामक नाटक में उत्तररामचरित की कथा का वर्णन किया है जो ६ अंकों में समाप्त हमा है। इन पर भवभूति की शैली का अधिक प्रभाव देखा जाता है। ग्यारहीं शताब्दी के प्रारम्भ में कृष्णमिश्र ने अपना प्रसिद्ध प्रतीकात्मक नाटक 'प्रबोषचन्द्रोदय' लिसा जिसमें शान्तरस की प्रधानता है । ये संस्कृत में प्रतीक नाटक के प्रवर्तक माने जाते