________________
संस्कृत महाकाव्य ]
( ६२४ )
[ संस्कृत महाकाव्य
रस प्रधान तथा शेष रस गोणरूप से उपस्थित किये जाते हैं। इसमें सभी नाटकसन्धि होती हैं तथा कथा लोकप्रसिद्ध सज्जनधर्म-सम्बन्धी या ऐतिहासिक होती है । धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इनमें से एक इसका फल होता है। प्रारम्भ में आशीर्वाद, नमस्कार या वर्णवस्तु का निर्देश होता है तथा कहीं खलों की निन्दा एवं सज्जन शंसन होते हैं। न तो बहुत बड़े और न बहुत छोटे इसमें आठ से अधिक सगं होते हैं । प्रत्येक सगं में एक ही छन्द का प्रयोग होता है, किन्तु सर्ग के अन्त में छन्द बदल दिया जाता है । सर्गान्त में भावी सगं की कथा होती है। इसमें सन्ध्या, सूर्य, चन्द्रमा, रात्रि, प्रदोष, अन्धकार दिन प्रातःकाल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, समुद्र, संभोग, वियोग, मन्त्र, पुत्र और अभ्युदय आदि का यथासम्भव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए। इसका नामकरण कवि के नाम से, वृत्त के नाम से या चरित्रनायक के नाम से होना चाहिए । इनके अतिरिक्त भी नाम संभव है तथा सगं को वर्णनीय कथा के आधार पर ही सगं सर्ग का नाम रखा जाना चाहिए । संस्कृत महाकाव्यों में उपर्युक्त नियमों की पूर्ण व्याप्ति दिखाई पड़ती है ।
संस्कृत महाकाव्यों के बीच वेदों के स्तुत्यात्मक काव्य की घटनाओं में तथा संवादात्मक सूतों में निहित हैं। यम यमी संवाद, पुरूरवा उर्वशी संवाद, इन्द्र-अदितिसंवाद, इन्द्र-इन्द्राणि-संवाद, सरमा-पणीस-संवाद इन्द्र मरुत संवाद नाटक एवं महाकाव्य के तत्वों से समन्वित हैं। ये सभी संवाद-सूक्त गद्य-पद्यात्मक थे, अत: ओल्डेन वर्ग ने यह विचार प्रकट किया कि अनुमानतः भारतीय महाकाव्यों का प्राचीनतम रूप गद्यपञ्चात्मक रहा होगा। संस्कृत महाकाव्य का प्रारम्भ 'रामायण' और 'महाभारत' से होता है । 'रामायण' ऐसा काव्य है जिसमें कला के माध्यम से जीवन की सौन्दर्यशास्त्रीय विवेचना की गयी है । 'रामायण' और महाभारत में विभिन्न प्रकार के उपाख्यान है और वे ही संस्कृत महाकाव्यों के स्रोत रहे हैं । इन्हीं उपाख्यानों, आख्यानों, कथाओं एवं अख्यायिकाओं का परिशोधन, परिवर्तन एवं परिवर्द्धन करते हुए महाकाव्यों का स्वरूप विकास हुआ। उपर्युक्त दोनों ग्रन्थों की शैली एवं रूप-शिल्प के आधार पर मह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि 'महाभारत' की अपेक्षा 'रामायण' में काव्योत्कर्षकारक गुण एवं अन्विति का आधिक्य है । 'महाभारत' में इतिहास के तत्व प्रधान हैं और काव्यगुण गौण है, पर 'रामायण' प्रधान रूप से काव्य है और इसमें इतिहास के गुण गौण हैं। 'महाभारत' के आधार पर पुराणों का विकास हुआ और अलंकृत एवं सौन्दर्यशास्त्रीय जीवन दृष्टि के कारण 'रामायण' ने महाकाव्यों को जन्म दिया । उत्तरवर्ती महाकाव्यों का प्रेरणास्रोत मुख्यतः रामायण ही रही है । संस्कृत के अधिकांश लक्षण ग्रंथ 'रामायण' को ही ध्यान में रखकर महाकाव्य का स्वरूप प्रस्तुत करते हैं । संस्कृत महाकाव्यों का परवर्ती विकास रामायण के रूप- शिल्प एवं शैली के माध्यम से 'महाभारत' की विषय-वस्तु को लेकर हुआ है । महाकाव्यकारों ने अन्य पुराणों को भी अपना उपजीव्य बनाकर उनसे विषय-वस्तु ली है पर उन्होंने उसे 'रामायण' की ही शैली में सुसज्जित और अलंकृत किया। अवश्य ही, कुछ महाकाव्य 'महाभारत' की भी शैली पर निर्मित हुए, किन्तु वे विशुद्ध कहाकाव्य की श्रेणी में