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संस्कृत महाकाव्य ]
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[ संस्कृत महाकाव्य
हैं। 'प्रबोधचन्द्रोदय' के अनुकरण पर संस्कृत में अनेक प्रतीकात्मक नाटक लिखे गए जिनमें यशपाल ( १३ वीं शती) रचित 'मोहपराजय', बेंकटनाथ ( १४ वीं शती) बिरचित 'संकल्प- सूर्योदय' तथा कर्णपूर ( १६ वीं शती) कृत 'चैतन्यचन्द्रोदय' नामक नाटक अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । जयदेव ( १२५० ई० ) कविकृत 'प्रसन्नराघव' नाटक में रामचरित का वर्णन है । इस नाटक में भी ह्रासोन्मुखी नाटकों के सभी दोष विद्यमान हैं। संस्कृत में रूपक के दस एवं उपरूपक के १७ भेद किये गये हैं । इन सभी भेदों के आधार पर संस्कृत में विशाल नाट्य साहित्य प्रस्तुत हुआ है और प्रत्येक भेद की पृथक्-पृथक् ऐतिहासिक परम्परा रही है । इनमें प्रहसन एवं भाण की संख्या अधिक है । संस्कृत का प्राचीनतम प्रहसन 'मत्तविलास' है जिसके रचयिता महेन्द्रविक्रम वर्मा थे ( ५७६ - ६०० ई० ) । अन्य प्रहसनकारों में कविराज शंखधर का नाम प्रसिद्ध है, इनके ग्रन्थ का नाम है 'लटकमेलक' ।
आधारग्रन्थ - १. संस्कृत ड्रामा - कीथ । २. संस्कृत नाटक - कीथ (हिन्दी अनुवाद) । ३. ड्रामा इन संस्कृत लिटरेचर – जागीरदार । ४. संस्कृत नाटककार - कान्ति किशोरभरलिया । ५. संस्कृत साहित्य का इतिहास - पं० बलदेव उपाध्याय । ६. भारतीय नाट्यसाहित्य - सं० डॉ० नगेन्द्र । ७. हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर - दास गुप्त एवं डे । ८. संस्कृत ड्रामा - श्री इन्दुशेखर ।
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संस्कृत महाकाव्य – संस्कृत साहित्म में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान महाकाव्य का है । इसका सर्वप्रथम स्वरूप विश्लेषण दण्डी रचित 'काव्यादर्श' में प्राप्त होता है तयः कालान्तर में रुद्रट : काव्यालंकार ) एवं महापात्र विश्वनाथ द्वारा (साहित्यदर्पण) मैं इसे पूर्ण प्रोढ़ता प्राप्त होती है । महाकाव्य विषयप्रधान इतिवृत्तात्मक काव्य है जिसमें सानुबन्ध कथा, भावव्यंजना तथा वस्तुव्यंजना पर अधिक बल दिया जाता है । विश्वनाथ के अनुसार महाकाव्य का स्वरूप इस प्रकार है- "सगंबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः ॥ सद्वंशः क्षत्रियो वापि धीरोदात्तगुणान्वितः । एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा ॥ शृङ्गारवीरशान्तानामेकोऽङ्गी रस इष्यते । अङ्गानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः । इतिहासोद्भवं वृत्तमन्यद्वा सज्जनाश्रयम् ॥ चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युस्तेष्वेकं च फलं भवेत् ॥ आदी नमस्त्रियाशीर्वा वस्तुनिर्देश एव वा । कचिनिन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम् ॥ एकवृत्तमयैः पचैरवसानेऽन्यवृत्तकैः । नातिस्वल्पा नातिदीर्घाः सर्गा अष्टाधिका इह ॥ नानावृत्तममः कापि सर्गः कश्चन दृश्यते । सर्गान्ते भाविसस्य कथायाः सूचनं भवेत् ॥ सन्ध्या सूयेन्दुरजनी प्रदोषध्वान्तवासराः । प्रातर्मध्याह्नमृगयाशैलर्तुवनसागराः ॥ संभोगविप्रलम्भी च मुनिस्वगंपुराध्वराः । रणप्रयाणोपयममन्त्रपुत्रोदयादयः ॥ वर्णनीया यथायोगं साङ्गोपाङ्गा अभी इह । कवेर्वृतस्य वा नाम्ना नायकस्येतरस्य वा ॥ नामास्य, सर्वोपादेयकथया सर्वनाम तु । अस्मिन्नार्षे पुनः सर्गा भवन्त्याख्यान संज्ञकाः ॥
साहित्य दर्पण ६।३१५ - १२५ महाकाव्य सगंबद्ध होता है जिसका नायक देवता या सवंशोद्भव क्षत्रिय धीरोदात्तगुणसमन्वित होता है । कहीं एक ही वंश के ( सत्कुलीन ) अनेक राजे भी इसके नायक होते हैं। शृङ्गार, बीर बोर शान्त में से एक