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संवतस्मृति ]
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[संस्कृत कषा साहित्य
भारतीय संगीत की अन्तिम कड़ी के रूप में विष्णु नारायण भातखण्डे का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने 'लक्ष्यसंगीत' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ की रचना की है। इसका प्रकाशन १९१० ई० में हुआ था । भातखण्डे हिन्दुस्तानी संगीतकला के बहुत बड़े ममंश थे। इन्हें भारतीय संगोतकला का सर्वोच्च विद्वान् माना गया है।
आधारग्रन्थ-१. संगीतशास्त्र-श्री के. वासुदेव शास्त्री । २. भरत का संगीत सिद्धान्त-श्री कैलास चन्द्रदेव 'वृहस्पति' । ३. भारतीय संगीत का इतिहास-श्री उमेश जोशी । ४. भारतीय संगीत का इतिहास-श्री शरदचन्द्र श्रीधर परांजपे। ५. स्वतन्त्रकलाशास्त्र-डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय । ७. भारतीय कला और संस्कृति की भूमिका--डॉ० भगवतशरण उपाध्याय । ८. संस्कृत साहित्य का इतिहास-वाचस्पति गैरोला।
संवर्तस्मृति-इस स्मृति के रचयिता संवतं नामक स्मृतिकार हैं। जीवानन्द तथा आनन्दाश्रम के संग्रहों में 'संवतस्मृति' के २२७ तथा २३० श्लोक प्राप्त होते हैं। इस स्मृति का प्रकाशन हो चुका है, किन्तु प्रकाशित अंश मौलिक ग्रंथ का संक्षिप्त सार है । 'मिताक्षरा' एवं 'स्मृतिसार' (हरिनाथ कृत ) में बृहत्संवतं स्वल्प संवतं का भी उल्लेख है। संवत ने लेखप्रमाण के समक्ष मौखिक बातों को कोई भी महत्व नहीं दिया है । इनके अनुसार अराजकता के न रहने पर तथा राज्य की स्थिति सुदृढ़ होने पर अधिकार करनेवाला व्यक्ति ही घर, द्वार अथवा भूमि का स्वामी माना जायगा और लिखित प्रमाण व्यर्थ हो जाएंगे । मुज्यमाने गृहक्षेत्रे विद्यमाने तु राजनि । भुक्तियंस्य भवेत्तस्य न लेख्यं तत्र कारणम् । परा० मा० ३ ।
आधारग्रन्थ-धर्मशास्त्र का इतिहास-डॉ. पा. वा. काणे,भाग १ (हिन्दी अनुवाद)
संस्कृत कथा साहित्य-भारतवर्ष को संसार की महानतम कथा-श्रङ्खलाओं को प्रारम्ब करने का श्रेय है। सर्वप्रथम यहाँ ही कथा-साहित्य का जन्म हुआ था और यहीं से अन्य देशों में इसका प्रचार एवं प्रसार हुआ । भारतीय (प्राचीन ) बाख्यायिका साहित्य को पशु-कथा तथा लौकिक आख्यायिका के रूप में विभाजित किया जा सकता है। पशु-आख्यायिका का रूप वैदिक वाङ्मय में भी दिखलाई पड़ता है। इसकी प्रथम छाया वैदिक साहित्य के उन स्थलों पर दिखलाई पड़ती है जहाँ नैतिक सन्देश देने के लिए अपवा व्यंग्य करने के लिए पशु मनुष्य की भांति बोलते या व्यवहार करते दिखाई पड़ते हैं। उपनिषदों में सत्यकाम को बैल, हंस एवं जलपक्षी उपदेश देते हुए चित्रित किये गए हैं। 'छान्दोग्य उपनिषद्' में पुरोहितों की तरह मन्त्रोच्चारण करने तथा भोजन के लिए भूकने वाले कुत्तों का वर्णन है । 'महाभारत' एवं 'जातक कथाबों' में भी पशुकथा का वर्णन प्राप्त होता है। प्रारम्भिक बौद्ध भाचार्यों ने अपने उपदेश के क्रम में पशु-आख्यायिकाओं का प्रयोग किया है। बौद्ध विद्वान् वसुबन्धु ने 'गाथासंग्रह' के उपदेश में हास्य का पुट देकर उसे सजीव बनाने के लिए पशु-कथा का सहारा लिया है।
विश्व-पशु-कथा की परम्परा में 'पञ्चतन्त्र' भारत की महान देन है। प्राचीन समय से ही इसके अनुवादों की धूम मची हुई है और फलस्वरूप पालीस प्रसिद्ध भाषामों