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संस्कृत गद्य ]
[ संस्कृत गद्य
हुआ है, यह पद्य बहुल साहित्य है । इसमें शास्त्रीय ग्रन्थों की भी रचना पद्य में ही हुई है । इतना होने पर भी, संस्कृत में गद्य का प्रचुर साहित्य विद्यमान है तथा इसका जितना भी अंश गद्य में लिखा गया है उसकी अपनी विशिष्टता है । संस्कृत गद्य लेखन की परम्परा वैदिक संहिताओं की तरह ही प्राचीन है। कृष्ण यजुर्वेद में गद्य का प्राचीनतम रूप उपलब्ध है । गद्य के कारण ही वैदिक संहिता में कृष्ण यजुर्वेद का स्वतन्त्र स्थान है । इसकी तैत्तिरीय संहिता गद्य का प्राचीनतम रूप उपस्थित करती है । अयववेद का छठा भाग भी गद्यरूप में है । परवर्ती साहित्य में ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा उपनिषदों में गद्य का व्यावहारिक रूप उपलब्ध होने लगता है जो वैदिक गद्य की परम्परा का प्रौढ़ एवं संवर्धनशील रूप प्रस्तुत करता है । कालान्तर में तत्त्वज्ञान, व्याकरण, विज्ञान विषयक ग्रन्थ, ज्योतिष तथा टीका ग्रन्थों में गद्य का व्यवहारोपयोगी श्री रूप सामने आया । इन ग्रन्थों का गद्य वैदिक साहित्य के गद्य का विकसित रूप स्तुत करता है तथा इस स्थिति में गद्य जीवन के निकट फलने-फूलने लगता है । कथाकाव्य, आख्यायिका, चम्पूकाव्य एवं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में गद्य के साहित्यिक सहज एवं अलंकृत रूप के दर्शन होते हैं और इनके संस्कृत गद्य अपने परिनिष्ठित रूप में पूर्णतः समृद्ध होकर प्रतिष्ठित होता है । संस्कृत में गद्यकाव्यों की विशाल परम्परा रही है, किन्तु सम्प्रति अनेक ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं । पतंजलि के महाभाष्य में वासवदना, 'भैरथी' एवं 'सुमनोत्तरा' प्रभृति गद्यकाव्यों के उल्लेख प्राप्त होते हैं - अधिकृत्य कृते ग्रन्थे' बहुलं लुग्वक्तभ्यः' वासवदत्ता, सुमनोत्तरा । न च भवति । भैमरथी [४।३।८७ ] । पतंजलि के पूर्व प्रसिद्ध वार्तिककार कात्यायन भी आख्यायिकाओं से परिचित दिखाई पड़ते हैं - लुबाख्यायिकाभ्यो बहुलम्, आख्याना आख्यायिकेतिहासपुराणेभ्यश्च ।
संस्कृत गद्य का वैशिष्ट्य - शास्त्रीय ग्रन्थों के माध्यम से संस्कृत आचार्यों ने सूत्रात्मक शैली के गद्य का निर्माण किया है । लाघव या लघुता संस्कृत गद्य की सर्वाधिक विशेषता है जिसमें पूरे वाक्य में व्यक्त किये गए विचार को एक ही पद में रखा जाता है । संस्कृत भाषा में समासबहुल गद्य का रूप प्राप्त होता है। वस्तुतः समास संस्कृत भाषा का प्राण है जिसके कारण गद्य में भावग्राहिता, गाढ़बन्धता एवं प्रभान्विति आती है । ओजगुण संस्कृत गद्य की अन्य विशिष्टता है । दण्डी के अनुसार समास का बाहुल्य ही ओज है और ओज का जीवन है- ओजः समासभूयस्त्वमेतद् गद्यस्य जीवितम् । संस्कृत गद्य के दो रूप प्राप्त होते हैं— बोलचाल का सरल या सादा गद्य तथा प्रौढ़ एवं अलंकृत गद्य । वैदिक साहित्य में बोलचाल का सरल गद्य प्राप्त होता है, पर लौकिक साहित्य में प्रौढ़ अलंकृत एवं प्रांजल भाषा प्रयुक्त हुई है । इन दोनों का मिश्रित रूप पौराणिक गद्य का है जिसमें अलंकृत गद्य प्राप्त होते हैं । श्रीमद्भागवत एवं विष्णुपुराण में ऐसे ही गद्य हैं ।
नद्य का विकास - वैदिक संहिता में संस्कृत गद्य का प्रारम्भिक रूप प्राप्त होता है । इस युग का गद्य सरल, सोधा एवं बोलचाल की भाषा का है जिसमें छोटे-छोटे वाक्य एवं असमस्त पद प्रयुक्त होते हैं । उपमा एवं रूपक प्रभृति अलङ्कारों के समावेश से इसमें विशेष चारुता आ जाती है । "वात्य आसोदीयमान एव स प्रजापति समैरयत् ।
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