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संस्कृत नाटक]
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{संस्कृत नाटक
भारतीय ग्रन्थों में इसके कहीं संकेत नहीं प्राप्त होते और स्वयं इस मत का उद्भावक (कीय ) भी इसके प्रति अधिक आस्थावान नहीं दिखाई पड़ता। जर्मन विद्वान् पिशेल ने नाटकों का उद्भव 'पुत्तलिकानृत्य' से माना है । उसके अनुसार इसकी उत्पत्ति सर्वप्रथम भारत में ही हुई थी और यहीं से इसका अन्यत्र प्रचार हुआ था। पर, भारतीय नाटकों के रससंवलित होने के कारण यह सिद्धान्त आधारहीन सिद्ध हो जाता है । कतिपय विद्वान जैसे, पिशेल,० लूटस एवं डॉ० स्तेन कोनो ने छायानाटकों से भारतीय नाटक की उत्पत्ति मानी है, पर भारत में छायानाटकों के प्रणयन के कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होते, और न इनकी प्राचीनता ही सिद्ध होती है । 'दूतांगद' नामक अवश्य ही, एक छायानाटक का उल्लेख मिलता है, पर यह उतना प्राचीन नहीं है। भरत ने भारतीय नाटकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो विचार व्यक्त किये हैं वे अत्यन्त सटीक हैं। उनके अनुसार सांसारिक मनुष्यों को अत्यन्त खिन्न देखकर देवताओं ने ब्रह्मा जी के पास जाकर एक ऐसे वेद के निर्माण को प्रार्थना की जो वेदाध्ययन के अनधिकारी व्यक्तियों के लिए भी उपयोगी हो। यह सुनकर ब्रह्मा ने ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गान, यजुर्वेद से अभिनय एवं अथर्ववेद से रस लेकर 'नाट्यवेद' नामक पंचम वेद का निर्माण किया और इन्द्रादि को इसके प्रचार का आदेश दिया । ब्रह्मा के कहने पर भरतमुनि ने अपने सो पुत्रों को नाट्यशास्त्र की शिक्षा दी। जग्राह पाठ्यमृग्वेदात्सामभ्यो गीतमेव च । यजुर्वेदादभिनयान रसानायवंणादपि ।। नाट्यशास्त्र १।१७ । इस विवरण से यह सिद्ध होता है कि नाटकों का आविर्भाव वेदों से ही हुआ है।
अनेक पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत नाटक पर ग्रीक ( यवन ) नाटकों का प्रभाव माना है। भारतीय नाटकों में 'यवनिका' शब्द का प्रयोग देखकर उन्होंने इस मत की पुष्टि के लिए पर्याप्त आधार ग्रहण किया है, पर उनकी यह बेबुनियाद कल्पना अब खण्डित हो चुकी है । भारतीय विद्वानों ने बतलाया है कि वस्तुतः मूल शब्द 'जवनिका' है, 'यवनिका' नहीं। जवनिका का अर्थ दौड़कर छिप जाने वाला आवरण होता है या वेग से सिकुड़ने या फैलने वाले आवरण को जवनिका कहते हैं। यवनिका का अर्थ 'यवनस्त्री' है अतः इसका जवनिका से कोई सम्बन्ध नहीं है। विद्वानों ने भारतीय नाटकों की मौलिकता एवं ग्रीक नाटकों की प्रविधि से सर्वथा भिन्न तत्त्वों को देखकर ग्रीक प्रभाव को अमान्य ठहरा दिया है। संस्कृत नाटकों में ग्रीक नाटकों की तरह संकलनत्रय के सिद्धान्त का पूर्णतः परिपालन नहीं होता और दुःखान्तता का नितान्त अभाव रहता है। संस्कृत नाटकों में रस का प्राधान्य होता है और कवि का मुख्य उद्देश्य रस-सिद्धि को ही माना जाता है। कई भाषाओं का मिश्रण उनकी अपनी विशेषता होती है । इनके आख्यान नितान्त भारतीय तथा रामायण एवं महाभारत पर आश्रित हैं और इनका विभाजन अंकों में किया जाता है। प्रारम्भ में नान्दी या मंगलाचरण का विधान होता है और अन्त में भरत वाक्य की योजना की जाती है । संस्कृत में रूपक एवं उपरूपक के रूप में नाटकों के २८ प्रकार होते हैं। रूपक के १० एवं उगरूपक के १८ भेद होते हैं। विदूषक संस्कृत नाटकों की निराली सृष्टि है और इसके जोड़ का पात्र ग्रीक नाटकों में नहीं मिलता। रंगमंच की दृष्टि से संस्कृत नाटक ग्रीक