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साहायन बारण्यक]
(६०५ )
[समन्तभद्र
उपाख्यानों का संग्रह है-रामकथा पुरुरवाउवंशी, बलप्लावन की कषा, अश्विनी कुमारों की कथा आदि । इन आख्यानों का साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यधिक महत्व है। 'शतपथ' में यज्ञयाश-विधि के अतिरिक्त अनेक आध्यात्मिक तथ्य भी प्रस्तुत किये गए हैं तथा इसके उपाख्यान, अनेक ग्रन्थों के आधार रहे हैं [ वेबर वारा १९५५ ई० में सायण तथा हरिस्वामी भाष्य के साथ प्रकाशित, पुनः १९१२ ई. में सत्यवत सामश्रमी द्वारा प्रकाशित ] ।
शाङ्गायन आरण्यक-यह ऋग्वेद का द्वितीय आरण्यक है । इसमें १५ अध्याय हैं मोर सभी ऐतरेय बारण्यक के ही समान हैं [दे० ऐतरेय बारण्यक]। इसके तीन से ६ अध्याय को 'कौषीतकि उपनिषद्' कहा जाता है [ दे० कौषीतकि]।
शाडायन ब्राह्मण-यह ऋग्वेद से सम्बर है। इसे 'कोषीतकि' भी कहते हैं। इसमें ३० अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में ५ से लेकर १७ तक खण हैं, जिनकी संख्या २२६ है। इसका प्रतिपाद्य ऐतरेय के ही सहश है, पर विषयों का विवेचन किंचित् विस्तार के साथ किया गया है। इसमें रुद्र की विशेष महिमा वर्णित है तथा उन्हें देवों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है [ रुद्रो वे ज्येष्ठश्च देवानाम्, २५१३ ] | इस ब्राह्मण में शिव के लिए रुद्र, महादेव, ईशान, भव, पशुपति, उग्र तथा अशनि शब्द प्रयुक्त हुए हैं और इन सभी नामों की विचित्र उत्पत्ति भी दी गयी है। इसमें शिव-सम्बन्धी व्रतों का वर्णन है । ७ वें अध्याय में विष्णु को उच्चकोटि का देवता तथा अग्नि को निम्नस्तर का देवता माना गया है-अग्निरवरायः विष्णुः पराध्यः। इसमें उदीच्य लोगों के संस्कृत-शान की प्रशंसा की गयी है तथा यह बतलाया गया है कि तत्कालीन व्यक्ति वहां जाकर संस्कृत सीखते थे, और उन्हें प्रभूत सम्मान प्राप्त होता था ८६। इसके २२२ अध्याय में शकरी (छन्द ) का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। कहा जाता है कि इसी छन्द के कारण इन्द्र को वृत्रासुर के संहार करने में सफलता प्राप्त हुई थी। इसी में धकरी का शकरीत्व है-इन्द्रो वृत्रमशकढन्तुमाभिस्तस्मात् शक्रयः। इस ब्राह्मण में गोत्र की महत्ता प्रदर्शित की गयी है और एक स्थान पर ( २५।१५) पर कहा गया है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य अपने ही गोत्र बालों के साथ निवास करें, अन्य के साथ नहीं। इसका प्रकाशन जेना से १८८७ ई० में हुआ, सम्पादक लिण्डेनर ।
समन्तमद्र-जैनदर्शन के आचार्य । इनका समय विक्रम की तृतीय या चतुर्षी शताब्दी है। इनके द्वारा रचित ग्रन्थों का विवरण इस प्रकार है-१. आप्तमीमांसाइसकी रचना ११४ कारिका में हुई है। इसे 'देवागम स्तोत्र' भी कहते हैं । इस पर दो टीकाएं प्राप्त होती है-भट्ट भाकत अष्टवती एवं विद्यानन्द की मष्टसहनी। २. युक्त्वानुसन्धानसमें ६४ पख है गौर अपने मत सबा परमतों की बालोचना है । इस पर विद्यानन्द की टीका मिलती है। ३. स्वयंभूस्तोत्र-इसमें १४ च है तथा तीथंकुरों की स्तुति एवं जैनमत का विवेचन है। ४. मिन-स्तुतिशतक-इसमें ११६ श्लोक हैं जो भक्ति-भाव से आपूर्ण है। १. रत्नकरण्श्रावकाचार्य-यह श्रावकाचार का सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्थ है। इनके अन्य तीन ग्रन्नों का भी उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु ये ग्रन्थ अनुपलब्ध हैं।