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बीमुक]
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समावेश है। इसमें वर्णन-विस्तार
सालों का मनोरम वर्णन है। कवि ने भक्तिवश कहीं-कहीं रामानुज के अतिमानवीय बना दिया है। अन्य के प्रारम्भ में विविध आचार्यों की साइना कवि अन्व-रचना के उद्देश्य पर विचार करता है । प्रवृत्तोऽहंलग्धुं परमपुरुषानुब्रहमय, महाध माणिक्यं यतिपतिचरित्राधिजठरे १५५१ । इसका प्रकाशन १९४२ ई० में मद्रास से हुना है।
आधारग्रन्थ-चम्पूकाव्य का विवेचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-to छविनाथ त्रिपाठी ।
श्रीशंकुक-काव्यशास्त्र के आचार्य। ये 'नाट्यशास्त्र' के व्याख्याता के रूप में प्रसिद्ध हैं । इन्होंने भरत के रससूत्र पर व्याख्या लिख कर अनुमितिबाद नामक रससिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। इनके अनुसार रस की अनुमिति ( अनुमान ) होती है, उत्पत्ति नहीं। इस सिद्धान्त की स्थापना कर इन्होंने भट्टलोबट के उत्पतिवाद का खण्डन किया है (दे० भट्टलोबट ) इनका कोई अन्य उपलब्ध नहीं होता, किन्तु अभिनवभारती, काव्यप्रकाश आदि ग्रन्थों में इनके उद्धरण प्राप्त होते हैं। कल्हणकृत 'राजतरंगिणी' में 'भुवनाभ्युदय' नामक काव्य के प्रणेता के रूप में श्रीकुक का नाम आया है । कविबुधमनाः सिन्धुशशांकः शंकुकाभिधः । यमुद्दिश्याकरोत् काव्यं भुवनाभ्युदयाभिधम् ।। ४७०५ । इनका समय ८२० ई० के भासपास माना जाता है। श्री. शंकुक का अनुमितिवाद न्यायशास्त्र पर आश्रित है जिसमें 'चित्रतुरगन्याय' के आधार पर रस का विवेचन किया गया है। इनके अनुसार रस का ज्ञान सामाजिक या दर्शक को होता है । इस व्याख्या के अनुसार नट कृत्रिम रूप से अनुभाव आदि का प्रकाशन करता है। परन्तु उनके सौन्दयं के बल से उसमें वास्तविकता-सी प्रतीत होती है। उन कृत्रिम अनुभाव आदि को देखकर सामाजिक, नट में वस्तुतः विद्यमान न होने पर भी उसमें रस का अनुमान कर लेता है और अपनी वासना के वशीभूत होकर उस बनुमीयमान रस का आस्वादन करता है। हिन्दी काव्यप्रकाश-आ. विश्वेश्वर पृ० १०२ (द्वितीय संस्करण)।
आधारवंष-१-भारतीय साहित्यास भाग १-० बलदेव उपाध्याय । २-हिन्दी काव्यप्रकाश-आ• विश्वेश्वर ।
भीहर्ष-'मेषचरित' नामक महाकाव्य के प्रणेता। संस्कृत के अन्य कवियों की भांति उनका जीवन धूमिल नहीं है। उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नैवषचरित' में कई स्थानों पर अपना परिचय दिया है। इस महाकाम्य के प्रत्येक सन में उन्होंने जो अपना परिचय दिया है उसके अनुसार उनके पिता का नाम श्रीहीर एवं माता का नाम मामहादेवी वा। श्रीहर्ष कविराजराणिमुकुटालद्वारहीरः सुतम् बीहीरः सुषुवे जिते. निवच मामहदेवी च यम् । तचिन्तामणिमन्त्रचिन्तनफले अङ्गारमझ्या महाकाये पाणि नैवधीयचरिते सगोत्रमादितः॥१॥१४५ । उनके पिता बीहीर कासी नरेश गहरवालवंशी विजयचना की सभा के पण्डित थे। श्रीहर्ष ने अपने अन्य वषचरित' में लिखा है कि ये कान्यकुम्भेश्वर के सभापन्हित ये तवा उन्हें उनकी सभा में दो बीड़े पान के द्वारा सम्मानित किया जाता था। तामूलयमासनं च लभते. काय
३० सं० सा०