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भीमदभागवतपुराण]
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[श्रीमद्भागवतपुराण
श्रीमद्भागवत की टीकाएँ–अर्थगाम्भीयं एवं अन्य विशेषताओं के कारण इसकी टोकाएँ रची गयी हैं उनका विवरण इस प्रकार है-१-श्रीधर स्वामी-भावार्थप्रकाशिका'-यह सभी टीकाओं में श्रेष्ठ एवं प्राचीन है। इसका समय ११ वीं शताब्दी है। इसके सम्बन्ध में निम्नांकित श्लोक प्रचलित है-'व्यासो वेत्ति शुको वेत्ति राजा वेत्ति न वेत्ति वा। श्रीधरः सकलं वेति श्रीनृसिंह-प्रसादतः । २.-सुदर्शन सूरि'शुकपक्षीया'-यह विशिष्टाद्वैत टीका है। इनका समय १४ वीं शती है। - बीरराघवकृत 'भागवतचन्द्रिका'-यह अत्यन्त विस्तृत टीका है। इसका समय १४ वीं शताब्दी है। ४-वलभाचार्य की 'सुबोधिनी टीका'-यह टीका सम्पूर्ण भागवत की न होकर दशमस्कन्ध एवं प्रारम्भिक कई स्कन्धों की है। ५-शुकदेवाचार्य कृत "सिद्धान्तप्रदीप'-यह निम्बार्कमत की टीका है । ६-सनातन गोस्वामी कृत 'वृहद्वैष्णवतोषिणी'-यह टीका चैतन्यमतावलम्बी टीका है और केवल दशम स्कन्ध पर ही है। ७-जीवगोस्वामीरचित 'क्रमसन्दर्भ' -विश्वनाथ चक्रवर्ती विरचित 'सारायंदशिनी' । चैतन्यमतानुयायी टीका।
श्रीमदभागवत का रचना-विधान-श्रीमद्भागवत की रचना सूत और शौनक संवाद के रूप में हुई है । इसे सर्वप्रथम शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को सुनाया था। इसकी भाषा अत्यन्त प्रौढ़, पाण्डित्यपूर्ण एवं गम्भीर है जिसका रूप अन्य के प्रारम्भ से अन्त तक अक्षुण्ण है। वह समास प्रधान, अलंकृत, प्रतीक-प्रधान तथा व्यंजना के गूढ़ साधनों से युक्त है। इनमें न केवल पद्य का प्रयोग है, अपितु प्रवाहपूर्ण गड का भी कतिपय स्थलों पर समावेश किया गया है, जो प्रौढ़ता में कादम्बरी के समकक्ष है। इसकी भाषा को 'काव्यमयी ललितभाषा' कहा जा सकता है। इसमें अनेक स्थलों पर प्रकृति का अत्यन्त मनोरम चित्र उपस्थित किया गया है एवं वृक्षों की नामावली भी प्रस्तुत की गयी है, विशेषतः रासलीला के वर्णन में। वल्लभाचार्य ने इसकी भाषा को 'समाधि-भाषा' कहा है, अर्थात् व्यासजी ने समाधि अवस्था में जिस परमतत्व की अनुभूति की थी उसका प्रतिपादन श्रीमद्भागवत में किया गया है। 'वेदाः श्रीकृष्ण. वाक्यानि व्यास-सूत्राणि चैव हि । समाधिभाषा व्यासस्य प्रामाणं तत् चतुष्टयम् ॥' शुलादैतमातंण्ड पृ० ४९।
श्रीमद्भागवत की रचना-तिथि-इसके निर्माण-काल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। सर्वप्रथम स्वामी दयानन्द सरस्वती ने इसे बोपदेव ( १३ वीं शताब्दी) की रचना कहा, किन्तु अनेक विद्वानों ने इस मत को भ्रान्त सिद्ध करते हुए बताया कि यह बोपदेव से हजार वर्ष पूर्व लिखा गया था। बोपदेव ने भागवत की रचना न कर उससे सम्बद्ध तीन ग्रन्थों का प्रणयन किया था। वे है-'हरिलीलामृत' या 'भागवतानुक्रमणी। इसमें भागवत के समस्त अध्यायों की सूची है। 'मुक्ताफल'-इसमें नवरस की दृष्टि से भागवत के श्लोकों का वर्गीकरण किया गया है। इनका तृतीय ग्रन्थ 'हंसप्रिया' अप्रकाशित है । शंकराचार्यकृत 'प्रबोधसुधाकर' के अनेक पद्यों पर श्रीमद्भागवत की छाया है तथा उनके दादा गुरु आचार्य गौडपाद के ग्रन्थों पर भी इसका प्रभाव दिखाई पड़ता है। शंकराचार्य का समय सप्तम शतक है, अतः उनके दादा