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श्रीमद्भागवतपुराण ]
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[ श्रीमद्भागवतपुराण
विभिन्न सिद्धियों के नाम तथा लक्षण, भगवान् की विभूतियों का वर्णन, वर्णाश्रमधर्म का विवेचन, वानप्रस्थ एवं सन्यासी के धर्मो का कथन, भक्ति, ज्ञान और यम-नियमादि साधनों का वर्णन, ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग, गुणदोष व्यवस्था का स्वरूप और रहस्य, तत्वों की संख्या तथा प्रकृति-पुरुष-विवेचन, सांख्ययोग, तीन गुणों की वृत्तियों का निरूपण, पुरूरवा का वैराग्य कथन, क्रियायोग का वर्णन तथा परमार्थ निरूपण, भागवतधर्म-निरूपण एवं उद्धव का बर्दरिकाश्रम प्रस्थान, यदुवंश का नाश,
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भगवान् का परमधाम - गमन ।
शाखाएँ एवं पुराणों
द्वादश स्कन्ध- - कलिशुग की राजवंशावली, कलियुग का धर्म, राज्य, युगधर्म तथा कलियुग के दोषों से बचने के उपाय अर्थात् नाम संकीर्तन का वर्णन, चार प्रकार प्रलय, श्रीशुकदेव का अन्तिम उपदेश, परीक्षित की परम गति, जनमेजय का नागयज्ञ तथा वेदों की शाखाओं ( शाखा-भेद ) का वर्णन, अथर्ववेद की के लक्षण, मार्कण्डेय जी की तपस्या एवं वर-प्राप्ति, मार्कण्डेय जी शंकर द्वारा उन्हें वरदान देना, भगवान् के अंग, उपांग एवं आयुधों का रहस्य और विभिन्न सूर्यगणों का वर्णन । श्रीमद्भागवत की संक्षिप्त विषय-सूची तथा विभिन्न पुराणों की श्लोक संख्या एवं श्रीमद्भागवत की महिमा ।
का माया दर्शन तथा
विवेचन - श्रीमद्भागवत से वयविषयों का अवलोकन करने से पता चलता है कि इस ग्रन्थ का निर्माण सुनियोजित ढंग से भक्ति-तत्व के प्रतिपादनार्थं किया गया है । प्रत्येक स्कन्ध में 'प्रेमलक्षणाभक्ति' का प्रतिपादन किया गया है । यद्यपि श्रीमद्भागवत में भक्ति के कई रूपों - वैधीभक्ति, नवधाभक्ति एवं निर्गुणभक्ति का वर्णन एवं विशद विवेचन है पर इसके अनेक स्थलों पर यह बात दुहराई गयी है कि भक्त को परम सिद्धि की प्राप्ति 'प्रेमलक्षणाभक्ति' के ही द्वारा प्राप्त हो सकती है । इसमें कोरे शान की निन्दा की गयी है - 'धर्मः स्वनुष्ठितः पुंसां विष्वक्सेन- कथासु मः । नोत्पादयेद्यदि रवि श्रम एव हि केवलम् ॥ १-२-८ क्षुद्राशा भूरि कर्माणो बालिशा वृद्धमानिनः ॥ १०-२१ ९ धिग्जन्म नस्त्रिवृद्विद्यां धिग्वतं धिग्बहुज्ञताम् । धिक्कुलं धिक् क्रिया-दाक्ष्यं विमुखा ये स्वधोक्षजे ।। १०-२३-३९ । इस पुराण का प्रधान लक्ष्य है समन्वयवाद अर्थात् सांस्य, मीमांसा, योग, न्याय, वेदान्त आदि सभी दर्शनों के सिद्धान्तों का समन्वय करते हुए उनका पर्यवसान भक्ति में ही किया गया है। इसमें पांचरात्र मत का प्राधान्य हैजिसमें बतलाया गया है कि 'क्रियायोग' को ग्रहण करके ही मनुष्य अमरत्व की उपलब्धि करता है । इसमें कई स्थलों पर शिव का भी महत्व प्रतिपादित किया गया है तथा उन्हें परम भागवत एवं वैष्णव बतलाया गया है। शिव को सभी विद्याओं का प्रवर्तक, सभी प्राणियों का ईश एवं साधु-जनों का एकमात्र आश्रय कहा गया है । 'ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वदेहिनाम् ॥ १२-१०-८ । भागवत में वेदान्त-तरव को अधिक महत्त्व प्रदान किया गया है तथा इसका ( भागवत का ) चर प्रतिपाद्य तस्व निर्गुण ब्रह्म को ही माना गया है । इसमें वेदान्त-मत को भक्ति तत्व के साज समन्वित करते हुए नवीन विचार व्यक्त किया गया है ।