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बीहर्ष ]
( ५९५ )
[मीहर्ष
समापिषु परं ब्रह्मप्रमोदार्णवम् । यत्-काव्यं मधुवि धर्विवपरास्तषु यस्योक्तयः । श्रीहर्षस्य कवेः कृतिः कृतिमुदे तस्याभ्युदीयादियम् ॥ २२॥१५॥
उन्होंने अपने महाकाव्य के प्रत्येक सगं के अन्त में अपनी रचनाओं का नामोल्लेख किया है। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं का विवरण इस प्रकार है--स्थैर्यविचारणप्रकरण-इसका संकेत चतुर्थ सग ( नैषध चरित) के १२३ श्लोक में है। यह रचना उपलब्ध नहीं है। नाम से ज्ञात होता है कि यह कोई दार्शनिक प्रन्य रहा होगा जिसमें क्षणिकवाद का निराकरण किया गया होगा। २-विजयप्रशस्ति-जयचन्द्र के पिता विजयचन्द्र की प्रशस्ति का इसमें गान किया गया है। वह अन्य भी अप्राप्य है। ३सण्डनखण्डखाद्य-यह श्रीहर्ष रचित सुप्रसिद्ध वेदान्त अन्य है जो नम्यन्याय की शैली पर लिखा गया है । लेखक ने न्याय के सिद्धान्तों का खण्डन कर वेदान्त का इसमें मन किया है। भारतीय दर्शन के इतिहास में इस ग्रन्थ का अत्यधिक महत्व है तथा यह श्रीहर्ष के प्रखर पाण्डित्य का परिचायक है। यह ग्रन्थ हिन्दी टीका के साथ प्रकाशित हो चुका है। ५-गोडोवीशकुलप्रशस्ति-इसमें किसी गोड नरेश की प्रशस्ति की गयी है, किन्तु अन्य मिलता नहीं। ५-अर्णववर्णन-इसमें समुद्र का वर्णन किया गया होगा, जैसा कि नाम से प्रकट है। यह रचना मिलती नहीं। ६-छिन्द-प्रशस्ति-छिन्द नामक किसी राजा की इसमें प्रशस्ति की गयी है। यह ग्रन्थ भी अनुपलब्ध है । ७शिवशक्तिसिद्धि-यह शिव एवं शक्ति की साधना पर रचित अन्य है, पर मिलता नहीं। -नवसाहसांकचरितचम्पू-नाम से ज्ञात होता है कि 'नवसाहसांक' नामक राजा का इसमें चरित वर्णित होगा। यह प्रन्थ अनुपलब्ध है। -नैषधीयचरितइसमें निषध नरेश नल एवं उनकी पत्नी दमयन्ती की प्रणय-गाथा २२ सों में वर्णित है। यह संस्कृत का प्रसिद्ध महाकाव्य एवं श्रीहर्ष की कवित्वशक्ति का उज्ज्वल प्रतीक है [ दे. मेषधीयचरित।
महाकवि श्रीहर्ष कालिदासोत्तर काल के कलावादी कवियों में सर्वोच स्थान के अधिकारी हैं। उनका महाकाव्य दूराद कल्पना, पाणित्य-प्रदर्शन, बालंकारिक सोन्दर्य, रसपेशलता एवं अद्भुत अप्रस्तुत विधान का बपूर्व भान्डागार है। उनका उद्देश्य सुकुमारमति पाठकों के लिए काव्य-रचना करना नहीं था। उन्होंने कोरे रसिकों के लिए काव्य की रचना न कर केवल पडितों के मनोविनोद के लिए अध्ययनजन्य ग्रन्थिलता के भार से बोझिल 'पन्थन्धि' का निर्माण किया था। उनका दार्शनिक शान नितान्त प्रोड़ था, अतः बीच-बीच में उन्होंने 'नैषधीयचरित' को दार्शनिक निमूह रहस्यों से संपृक्त कर दिया है। नैषध का सत्रहवा सर्ग तो एकमात्र दार्शनिक सिमान्तों से ही मापूर्ण है। इस सगं में कवि ने चार्वाकमत का अत्यन्त सफलता के साथ खन्डन किया है तथा अपने प्रौढ़ पाण्डित्य का भी प्रदर्शन किया है। अपने सबके उद्देश्य पर विचार करते हुए स्वयं कवि ने ऐसे तथ्य प्रस्तुत किये हैं जिनमें उसकी काव्य-विषयक मान्यताबों का निदर्शन होता है-प्रन्यान्पिरिह विचिदपि याति प्रयत्लान्मया, प्रासंमन्यमना हठेन पठिती मास्मिन् सलमेलतु । प्रायब्युसमयीतहायिः समासादयत्वेतस्काव्यरसोनिमज्जनसुखव्यासवर्ण सम्बनः ॥ २१॥१५२ ।