Book Title: Sanskrit Sahitya Kosh
Author(s): Rajvansh Sahay
Publisher: Chaukhambha Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 607
________________ ( ५९६ ) [श्रीहर्ष भी पानबूबकर प्र कहीं-कहीं इस काव्य में यूह गुत्तियां रख दी है यह एक इसीलिये कि कोई विहन्मन्य बस ववक्षा के साथ यह न कह सकें कि 'मैंने तो अवधीयचरित' पूरा पड़ लिया है इसमें कुछ है ही नहीं, और सहृदय सज्जन तो प्रतापूर्वक गुरुखों द्वारा पत्तियों को सुलझा कर इस कामामृत का पूर्ण मानन्द लेंगे ही।'' यथा यूनस्तात्परमरमणीयापि रमणी कुमाराणामन्तःकरणहरणं नैव कुरुते । मदुक्तिश्चेदन्तर्मदयति सुपीनूप सुधियः, किमस्या नाम स्वादरमपुरुषानादरमः॥ २२११५० । 'अतिरम्य लावण्यमयी सुन्दरी जिस प्रकार युवक-वर्ग के हृदय में प्रवेश करती है क्या उसी प्रकार शिशुओं के भी मन को वश में करेगी? उसो भौति मेरी यह काव्य-वाणी यदि सहृदय विद्वानों के हृदय में अमृत बनकर आनन्ददायिनी होती है तो अरसिक नर पशुओं द्वारा इसका अपमान होने पर भी इसका क्या बिगड़ता है।' दिशि दिशि गिरिग्रावाणः स्वां नमन्तु सरस्वती, तुलयतु मिथस्तामापातस्फुरवनिडम्बराम् । स परमपरः क्षीरोदन्वान्यदीयमुदीयते, मथितुरमृतं खेदच्छेदि प्रमोदनमोदनम् ॥ २२११५१ । 'पवंत के पाषाण-खण्ड इधर-उधर ऊपर-नीचे गिरकर गर्जन आडम्बर करने वाले अपने स्रोत बहाया करें किन्तु क्षीरसागर से . उनकी समता ही क्या जिसमें मन्थन करने वालों को परम सुखद, श्रमापहारी अमृत प्राप्त होता है। उसी प्रकार सूक्ति-रचना में जड़ कविगण अपने पद जोड़ा करें और उनमें ऊपरी अलंकार, ध्वनि बादि लाने का भी प्रयत्न करें, किन्तु क्षीरसागर के समान वह श्रीहर्ष नाम का कोई लोकोत्तर ही कवि है जिसके वाणीप्रवाह में परमानन्ददायी अमृत की प्राप्ति होती है।' बीहर्ष ने भी पर्सनों के मत को लेकर उन्हें काव्य-कल्पना के द्वारा मनोरम बनाया है। नरू वीर दमयन्ती के मन को दो परमाणुगों के मिलने से नवीन सृष्टि निषित करने की बात विक दर्शन के माधार पर कही गयी है-अन्योन्यसंगमव. बावना विमाता यावी मनसी विकसदिलासे । मष्टुं पुनमनसिजस्य ननु प्रवृत्त-नादाविव इक्क र परमानुयुग्मम् ॥ ३॥१२५ । 'इस समय परस्पर मिलकर नल के बौर तुम्हारे दोनों के मन बनी विलासकसानों को व्यक्त करते हुए सुशोभित हों। मानो कामदेव के शरीर का पुनः निर्माण करने के लिए समाने में दो परमाणु प्रवृत्त हुए है।' बढत तत्व का भी इसी प्रकार प्रतिपादन क र सकी खात्मक अभिव्यक्ति की गयी है । साप्तुं प्रयच्छति न पक्षचतुष्टये तो amaleनि न पामोटिमात्रे। धो दधे निवथराइविमती मतानामततत्व इव सत्यपरेऽपि लोकः ॥ १६ । 'जिस प्रकार सांस्य बादि भिन्न मतों के कारण सद, असत्, सदसत, सदसद्धिलक्षण इन चार प्रकार के सिवान्तों द्वारा मतैक्य स्थापित न हो सकने से लोगों की अत्यन्त सत्य तवा इन चारों वादों से परे पंचम कोटिस्थ 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन' इत्यादि श्रुति प्रमाणित अद्वैत ब्रह्म में आस्था नहीं हो पाती, उसी प्रकार दमयन्ती को भी कई नल होने के कारण नलविषयक सन्देह होने पर पांचवे स्थान में बैठे हुए वास्तविक नल में भी विश्वास न . क्योंकि दमयन्ती को पाने की अभिलाषा. से पार समान रूप पाले नल उस विश्वास को होने ही नहीं देते थे।' विशुद्ध कवित्व की दृष्टि से भारवि, मात्र बादि से बीहां बहकर है। भारवि और

Loading...

Page Navigation
1 ... 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639 640 641 642 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670 671 672 673 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728