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श्रीमदभागवतपुराण]
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[श्रीमदभागवतपुराण
भागवतकार ने भी इसे "निगमकल्पतरु का गलित अमृतमय फल' कहा है। यह पुराण वैष्णव आचार्यों के बीच 'प्रस्थान-चतुष्टय' के नाम से विख्यात है और सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन-परम्परा में इसका स्थान 'ब्रह्मसूत्र' 'उपनिषद्' एवं 'गीता' की भांति महत्वपूर्ण माना जाता है। यह भक्तिरस का आधारग्रंथ एवं धर्म का रसात्मक स्वरूप उपस्थित करनेवाला शास्त्रीय ग्रन्थ भी है। श्रीमद्भागवत भारतीय वैदुष्य का चरमशिखर है जिसमें नैष्कयं भक्ति का प्रतिपादन तथा भगवान् की चिन्मय लीला का चिन्मय संकल्प एवं दिव्य बिहार का वर्णन करते हुए प्रेमिल भावना का शास्त्रीय एवं व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है। इसमें ब्रह्मविषयक जिन तीन बातों का प्राधान्य प्रदर्शित किया गया है. वे हैं-अधिष्ठानता, साक्षिता और निरपेक्षिता, और उनके तीन रूपोंबाध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक की भी व्यंजना हुई है। इसमें यह सिद्ध किया गया है कि श्रीकृष्ण ही ब्रह्म, परमात्मा एवं भगवान हैं।' वदन्ति तत्तत्व विदस्तरखं यज्ज्ञानमत्यम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ॥' श्रीमदभागवत, १॥२११ ___'श्रीमद्भागवत' में १२ स्कन्ध, ३३५ अध्याय एवं लगभग १८ सहस्र श्लोक हैं। 'नारदीयपुराण', 'पद्मपुराण', 'कौशिकसंहिता,' 'गौरीतन्त्र', 'स्कंदपुराण' आदि ग्रंथों के अनुसार इनमें १८ हजार श्लोक हैं तथा स्कन्धों एवं अध्यायों की संख्या भी उपरिवत है। 'पद्मपुराण' में इसकी ३३२ शाखाएं कही गयी हैं 'द्वात्रिंशत्रिशतं च यस्य विलसच्छासाः। श्रीमद्भागवत के प्राचीन टीकाकार चित्सुखाचार्य ने भी ३३२ अध्यायों का ही निर्देश किया है-'द्वात्रिंशत्रिशतं पूर्णमध्यायाः' कतिपय विद्वान् इसी कारण इसके तीन अध्यायों को प्रक्षिप्त मानते हैं। स्वयं महाप्रभु बहभाचार्यजी ने भी दशम स्कन्ध के तीन अध्यायों ८८, ८९, ९० को प्रक्षिप्त माना है। किन्तु, रूपगोस्वामी ने इन्हें प्रामाणिक मानते हुए कहा है कि 'जो इन अध्यायों को प्रक्षिप्त मानते हैं उनके ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है क्योंकि सब देशों में वे प्रचलित हैं और 'वासनाभाष्य' 'सम्बन्धोक्ति', 'विढस्कामधेनु', 'शुकमनोहरा', 'परमहंसप्रिया' मादि प्राचीन एवं आधुनिक टीकाओं में इसकी व्याख्या की गयी है। यदि अपने सम्प्रदाय अस्वीकृत होने के कारण ही वे उन्हें अप्रामाणिक मानते हैं तो दूसरे सम्प्रदायों में स्वीकृत होने के कारण प्रामाणिक ही क्यों नहीं मानते ? यदि 'द्वात्रिंशत् त्रिशतं च' को प्रामाणिक माना है तो इन्टैक्य स्वीकार करके उन पदों का अर्थ ३६५ हो सकता है अर्थात् 'द्वात्रिंशत् च त्रिपञ्चशतानि च' व्याख्या से ३३५ हो जाता है। इस प्रकार ३३५ अध्याय संख्या मानकर तत्तत्पुराणों की संगति लग सकती है ।" भागवतदर्शन पृ० ६४ । वयं विषय-इसके १२ स्कन्धों का सार इस प्रकार है
प्रथम स्कन्ध-प्रारम्भ में नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों द्वारा सूत जी से मनुष्य के प्रात्यन्तिक श्रेय के साधन की जिज्ञासा एवं सूत जी द्वारा श्रीकृष्ण की भक्ति को ही उसका एकमात्र साधन बताना। चौबीस अवतारों की कथा, शुकदेव एवं परीक्षित की कथा, व्यास द्वारा श्रीमद्भागवत की रचना का रहस्य, नारदजी के पूर्वजन्म का वर्णन एवं उन्हें केवल भक्ति को आत्म-शान्ति प्रदान करने का साधन मानना,