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जैवतन्त्र
(५८३ )
[वतन्त्र
वे सन्त चार प्रमुख शैव मामा के संस्थापक माने गए हैं-मार्गचर्या, क्रिया, योग एवं मान । इनका समय सप्तम एवं अष्टम शताब्दी है। इनकी रचनाएं मुख्यतः तमिल में ही है और कुछ संस्कृत में भी प्रकाशित हो रही हैं। इसके आगम को 'शैव सिद्धान्त' कहते हैं । शैवागमों की संख्या २०८ मानी जाती है । कहा जाता है कि भगवान् शिव के पांच मुखों से २८ तन्त्रों का आविर्भाव हुआ है जिसे भगवान् ने अपने भक्तों के उद्धार के लिए प्रकट किया था। शवाचार्यों के सद्योज्योति ( ८ वीं शताब्दी) हरदत्त शिवाचार्य ( ११ वीं शताब्दी), रामकण्ठ (११ वीं शताब्दी) एवं अघोरशिवाचार्य आदि प्रसिद्ध आचार्य हैं। इनमें सद्योज्योति ने नरेश्वरपरीक्षा, गौरवागम की वृत्ति, स्वायम्भुव मागम पर उद्योत एवं सस्वसंग्रह तत्वत्रय, भोगकारिका, मोक्षकारिका एवं परमोक्षनिरासकारिका नामक ग्रन्थों की रचना की है। हरदत्त शिवाचार्य की प्रसिद्ध रचना है-श्रुतिसूक्तिमाला या चतुर्वेद तात्पर्य-संग्रह ।'
३-वीर शैवमत-इस मत के अनुयायी लिंगायत या जंगम कहे जाते हैं। इन्हें वर्णव्यवस्था मान्य नहीं है। ये शंकर को लिंगायत मूति सदा गले में धारण किये रहते हैं। इस मत का प्रचार कर्नाटक में अधिक है। इनके आद्यप्रवर्तक ( १२ वी शताब्दी) 'बसव' कहे जाते हैं जो कलचुरि के राजा बिज्जल के मन्त्री थे। वीर बों के अनुसार इस मत की प्राचीनता असंदिग्ध है और इसका उपदेश पांच महापुरुषों ने विभिन्न समय पर दिया था। उनके नाम हैं-रेण्डकाचार्य, दारुकाचार्य, एकोरामाचार्य, पण्डिताराध्य एवं विश्वाराध्य । शिवयोगी शिवाचार्यकृत 'सिद्धान्तशिखामणि' इस सम्प्रदाय का मान्य ग्रन्थ है।
४-प्रत्यभिज्ञादर्शन-इस मत का प्रचलन काश्मीर में अधिक था। इसे स्पन्द या त्रिक् दर्शन भी कहा जाता है। पशु, पति एवं पाश तीन तत्वों की प्रधानता के. कारण यह दर्शन त्रिक के नाम से विख्यात है। अथवा ९२ आगमों में से सिमा नामक एवं मालिनी तन्त्र की प्रमुखता ही विक नाम का कारण है। अभिनवगुप्त ने 'तन्त्रालोक' में इस दर्शन के आध्यात्मिक पक्ष का विवेचन किया है। कहा जाता है कि भगवान शिव ने शैवागमों की द्वैतपरक व्याख्या को देखकर ही इस मत को प्रकट किया था जिसका उद्देश्य अद्वैततत्व का प्रचार था। भगवान ने दुर्वासा ऋषि को इसके प्रचार का आदेश दिया था। इस दर्शन (अद्वैतवादी) का साहित्य अत्यन्त विशाल है जो काश्मीर ग्रन्थमाला से प्रकाशित है। त्रिक के मूल आचार्य वसुगुप्त माने जाते हैं जो ८०० ई० आसपास थे। इन्होंने स्पन्दकारिका (५२ कारिका ) में शिवसूत्र की विशद व्याख्या की है। कहा जाता है कि 'शिवपल' नामक चट्टान पर 'शिवसूत्र' उड़ित थे ( जिनकी संख्या ७७ है ) जिन्हें भगवान शिव ने वसुगुप्त को स्वप्न में इनके उखार का आदेश दिया था। ये ही सूत्र इस दर्शन के मूल हैं। वसुगुप्त के दो शिष्यों महामाहेश्वराचार्य कल्लट ( नवम शतक का उत्तराद) एवं सोमानन्द ने क्रमशः स्पन्दसिद्धान्त एवं प्रत्यभिज्ञा मत का प्रचार किया। कल्लट की प्रसिद्ध रचना है 'स्पन्दकारिका' की वृत्ति जिसे 'स्पन्दसर्वस्व' कहा जाता है । सोमानन्द के प्रन्यों के नाम है-'शिवदृष्टि' एवं 'परात्रिशिका-विवृत्ति'। उत्पलाचार्य प्रत्यभिमादर्शन के प्रसिद्ध