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शैवतन्त्र]
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[शेवतन्त्र
रामशंकर तिवारी। १५- संस्कृत नाट्य समीक्षा-इन्द्रपाल सिंह 'इन्द्र'। १६-संस्कृत साहित्य का नवीन इतिहास-कृष्ण चैतन्य ( हिन्दी अनुवाद) । १७-आलोचना त्रैमासिक अंक २७ मृच्छकटिक पर निबंध-डॉ० भगवतशरण उपाध्याय । १८-मृच्छकटिक पर निबंध-पं० इलाचन्द्र जोशी संगम साप्ताहिक १९४८ ।
शैवतन्त्र-शिव की उपासना से सम्बद्ध तन्त्र को शैवतन्त्र कहते हैं। दार्शनिक दृष्टि से भिन्नता के कारण इसके चार विभाग हो गए हैं-पाशुपतमत, शैवसिद्धान्तमत, वीरशैवमत एवं स्पन्द या प्रत्यभिज्ञामत । शिव या रुद्र की उपासना वैदिक युग में ही प्रारम्भ हो चुकी थी और वेदों में रुद्रविषयक अनेक मन्त्र भी प्राप्त होते हैं । 'यजुर्वेद' में 'शतरुद्रीय अध्याय' अपनी महत्ता के लिए प्रसिद्ध है और 'तैत्तिरीय आरण्यक' में (१०।१६ ) समस्त जगत् को रुद्र रूप कहा गया है। 'श्वेताश्वतर उपनिषद्' में (११) रुद्र को सर्वव्यापी तथा सवंगत माना गया है, पर इन ग्रन्थों में तन्त्रशास्त्रसंबंधी पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग नहीं मिलते । 'महाभारत' में शैवमतों के वर्णन प्राप्त होते हैं। 'अथर्वशिरस्' उपनिषद् में पाशुपतमत के अनेक पारिभाषिक शब्द प्राप्त होते हैं जिससे शैवमत की प्राचीनता सिद्ध होती है । शैवतन्त्र विभिन्न सम्प्रदाय भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित थे। पाशुपतमत का केन पुषरात एवं राजपूताना में था और शैवसिद्धान्त तामिल देश में लोकप्रिय था। वीरवमतका क्षेत्र कर्नाटक पा और प्रत्यभिज्ञादर्शन का केन्द्र काश्मीर ।
१-पाशुपत मत-इस मत के संस्थापक लकुलीश या नमुसीश माने जाते हैं। 'शिवपुराण' के 'कारवण माहात्म्य' में इनका जन्म स्थान 'भड़ोंच' के निकटस्थ 'कारवन' संझक स्थान माना गया है। राजपूताना एवं गुजरात में जो इनकी मूर्तियां प्राप्त होती हैं उनका सिर केशों से ढका हुआ दिखाई पड़ता है। इनके दाहिने हाथ में बीजपूर का फल एवं बायें में लगुड रहता है। लगुड धारण करने के कारण ही ये लकुलीश या लगुडेश कहे गए। शिव के १८ अवतार माने गए हैं उनमें नकुलीश को उनका बाचावतार माना जाता है । उनके नाम हैं-लकुलीश, कौशिक, गाग्यं, मैत्र्य, कोरुष, ईशान, पारगाग्यं, कपिलाण्ड, मनुष्यक, अपरकुशिक, अत्रि, पिंगलाक्ष, पुष्पक, बृहदाय, अगस्ति, सन्तान, राशीकर तथा विद्यागुरु । पाशुपतों का साहित्य अत्यन्त अल्पमात्रा में ही प्राप्त होता है । 'सर्वदर्शनसंग्रह' में माधवाचार्य ने 'नकुलीश पाशुपत' के नाम से इस मत के दार्शनिक सिद्धान्त का विवेचन किया है। राजशेखर सूरि-रचित 'षड्दर्शनसमुच्चय' में भी 'योगमत' के रूप में इस सम्प्रदाय की आध्यात्मिक मान्यताएं वर्णित हैं। इस सम्प्रदाय का मूलग्रन्थ 'पाशुपतसूत्र' उपलब्ध है जिसके रचयिता महेश्वर हैं । यह ग्रन्थ 'पन्चार्थी भाष्य' के साथ अनन्तशयन ग्रन्थमाला (सं० १४३) से प्रकाशित है । इस भाष्य के रचयिता कौण्डिन्य हैं।
२.-शैव सिद्धान्तमत-तामिल प्रदेश ही इस मत का प्रधान केन्द्र माना जाता है। इस प्रान्त के शैवभक्तों ने तामिल भाषा में शिवविषयक स्तोत्रों का निर्माण किया है जिन्हें वेद के सदृश महत्त्व दिया जाता है। इस मत में ८४ शैव सन्त हो चुके हैं जिनमें चार अत्यन्त प्रसिद्ध है-अप्पार, सन्त ज्ञानसम्बन्ध सुन्दरमूर्ति एवं मणिकवाचक