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शीलदूत]
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[शीला भट्टारिका
में इनका कोई योग नहीं है। तीसरे से लेकर तेरहवें सगं तक शिशुपालवध में अनेक वर्णन आनुषङ्गिक हैं। समष्टिरूप से विचार करने पर यह रचना असफल महाकाव्य सिद्ध होती है। इसमें कवि ने मुख्य और प्रासंगिक घटनाओं के चित्रण में अपना सन्तुलन खो दिया है। उसका ध्यान प्रबन्ध-निर्वाह की अपेक्षा अपने युग की प्रचलित साहित्यिक विशेषताओं की ओर अधिक होने के कारण ही शिशुपालवध में वन, नगर, पर्वत, चन्द्रोदय, सूर्योदय, युद्ध, नायिकाभेद, पानगोष्ठी, रात्रिक्रीड़ा, जलविहार एवं विविध शृङ्गारिक चेष्टाओं का वर्णन किया गया है। इसमें पात्रों की संख्या भी अत्यल्प है। केवल दो ही प्रमुख पात्र हैं-श्रीकृष्ण एवं शिशुपाल, कुछ पात्र जैसे, नारद, युधिष्ठिर, उद्धव, बलराम प्रसंग-विशेष से ही सम्बद्ध हैं। कथानक की स्वल्पता ही पात्रों की न्यूनता का कारण है। इसमें कवि का ध्यान घटना की अपेक्षा पात्रों के चरित्र-चित्रण पर कम रहा है।
आधारग्रन्थ-१. शिशुपालवध (संस्कृत टोका एवं हिन्दी अनुवाद ) चौखम्बा प्रकाशन । २. शिशुपालवध ( हिन्दी अनुवाद)-अनु० पं० रामप्रताप त्रिपाठी।
शीलदूत-इस सन्देश काव्य के रचयिता का नाम चारित्रसुन्दरगणि है। इस अन्य का रचनाकाल वि० सं० १४८७ है। इसके लेखक गुजरात राज्य के खम्भात नामक स्थान के निवासी थे। इनके गुरु का नाम श्रीरत्नसिंह सूरि था । स्वयं कवि ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है-सोऽयं श्रीमानवनिविदितो रत्नसिंहास्यसूरिजर्जीयार नित्यं नृपतिमहतः सतपोगच्छनेता ॥ १२९। शीलदूत' की रचना मेघदूत के श्लोकों के अन्तिम चरण की समस्यापूर्ति के रूप में हुई है। यह काव्य पूर्वभाग एवं उत्तरभाग के रूप में विभक्त नहीं है। इसमें कुल १३१ श्लोक हैं तथा शान्तरस का प्राधान्य है। इस काव्य का नायक शीलभद्र नामक व्यक्ति है जो जैनधर्म में दीक्षित हो जाता है । तदनन्तर गुरु का आदेश प्राप्त कर वह अपनी नगरी में जाता है यहां उसकी पत्नी कोशा अपनी दीनावस्था का वर्णन कर उसे पुनः गृहस्थी बसाने के लिए कहती है। पर शीलभद्र उसको वैराग्य भरा वचन कह कर उसे भी जैनधर्म में दीक्षित होने के लिए प्रेरित करता है। उसकी पत्नी उसका वचन मान कर जैनधर्म में दीक्षित हो जाती है। विरह-वर्णन में कवि ने अनुभूति की तीव्रता एवं विरह-व्याकुलता के अतिरिक्त भाषा पर असाधारण अधिकार का परिचय दिया है। इस ग्रन्थ का प्रकाशन यशोविजय ग्रन्थमाला, बनारस से हो चुका है। कोशा की सखी चतुरा द्वारा कोशा का विरह-वर्णन देखने योग्य है___ एषाऽनैषीत् सुभग ! दिवसान कल्पतुल्यानियन्तं कालं बाला बहुल सलिलं लोचना. भ्यां सवन्ती। अस्थात् दुःस्था तव हि विरहे मामियं वातंयन्ती कच्चिद् भर्तुः स्मरसि हसिके त्वं हि तस्य प्रियेति ॥ २ ॥ - आधारग्रन्थ-संस्कृत के सन्देश काव्य-डॉ. रामकुमार आचार्य।
शीला भट्टारिका-संस्कृत की प्रसिद्ध कवयित्री। इनका कोई विवरण प्राप्त नहीं होता, केवल 'सुभाषितरत्नकोश' (१५,८५०) में दो श्लोक उदधृत हैं। राजशेखर ने इनकी प्रशस्ति की है जिससे ज्ञात होता है कि ये दशम सतक की परवर्ती नहीं हैं।