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ध्याकरण-शास्त्र का इतिहास]
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[व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
नीय आचार्यों के ग्रन्थ लुप्त हो चुके हैं और उनका व्यक्तित्व अब रचयिता की अपेक्षा वक्ता एवं प्रवक्ता के रूप में अधिक उपलब्ध है। पाणिनि ने इनके विवेचन से लाभ उठाते हुए अपने अन्य को पूर्ण किया है। पाणिनि के आविर्भाव से संस्कृत-व्याकरण का रूप स्थिर हो गया और उसे प्रौढत्व प्राप्त हुआ। संस्कृत व्याकरण के इतिहास को मुस्थतः चार कालों में विभाजित किया जा सकता है-१-पूर्वपाणिनि कालप्रारम्भ से पाणिनि तक, २-मुनित्रय काल-पाणिनि से पतंजलि तक, ३-व्याख्या काल-काशिका से १००० ईस्वी तक, ४-प्रक्रिया काल-(१०००ई० से १७०० ईस्वी तक), ५-इसका पांचों काल आधुनिक व्याख्याताओं का है जब संस्कृत व्याकरण का अध्ययन एवं अनुशीलन पाश्चाव्य पण्डितों ने तथा आधुनिक भारतीय विद्वानों ने किया।
पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि संस्कृत व्याकरण के त्रिमुनि के रूप में प्रसिद्ध हैं जिन्होंने सूत्र, वात्तिक एवं भाष्य की रचना की। जब अवान्तर काल में उत्पन्न हुए भाषा-मैद के कारण पाणिनि के सूत्रों से काम न चला तो उनको न्यूनताओं की पूर्ति के लिए कात्यायन या वररुचि ने वात्तिकों की रचना की। इनका जन्म पाणिनि के लगभग २०० वर्षों के पश्चात् हुआ। इनके कुछ तो वातिक गद्य रूप में हैं और कुछ छन्दोबत है। कात्यायन या वररुचि के नाम से महाभाष्य में 'वाररुचं काव्यं का निर्देश किया गया है, जिससे पता चलता है कि इन्होंने किसी काव्य ग्रन्थ की भी रचना की थी। इनके नाम से अनेक श्लोक 'सुभाषितावली' एवं 'शाङ्गंधरपदति' में उपलब्ध होते हैं । 'सदुक्तिकर्णामृत' में भी वररुचि के पद्य प्राप्त होते हैं। कवि वररुचि तथा वात्तिककार कात्यायन एक ही व्यक्ति हैं पर प्राकृत प्रकाश का रचयिता के मत से वररुपि कोई भिन्न व्यक्ति है । राजशेखर के अनुसार इनके काग्य का नाम 'नीलकण्ठचरित' था। आगे चलकर पाणिनि की 'अष्टाध्यायी' पर अनेक वातिक लिखे गए जिनमें भारद्वाज एवं सोनाग के वात्तिक पाठ प्रसिद्ध हैं। पतंजलि (दे० पतंजलि एवं महाभाष्य ) ने अष्टाध्यायी के अतिरिक्त वात्तिकों पर भी भाष्य लिखा तथा महाभाष्य के बाद भी कई भाष्य वात्तिकों पर लिखे गए-जिनमें हेलाराज, राघवसू और राजकद्र के नाम उल्लेखनीय हैं। संस्कृत व्याकरण का प्रोढ़ रूप पाणिनि में दिखाई पड़ा और कात्यायन के वात्तिकों से विकसित होकर महाभाष्य तक आकर चरम परिणति पर पहुंच गया तथा इसकी धारा यहीं आकर अवरुत हो गयी। कालान्तर में संस्कृत व्याकरण की धारा में नया मोड़ उपस्थित हुआ और व्याख्या काल के अन्तर्गत नवीन विचार सरणियों का जन्म हुआ, किन्तु इन्होंने पाणिनि की भांति नबीन व्याकरणिक उभावनाएं नहीं की। इस युग के आचार्य पाणिनि और पतंजलि की व्याख्याएं एवं टीकाएं करते रहे और उनके स्पष्टीकरण में ही व्याकरण की कतिपय नूतन धाराओं का विकास हुआ।
अष्टाध्यायी के वृत्तिकारों ने कुणि, माथुर, श्वोभूति, वररुचि, देवनंदी, दुविनीत, पुखिभट्ट, निलूर, जयादित्य, वामन, विमलमति, भर्तृश्वर, जयंतभट्ट, अभिनन्द, केशव, इन्दुमित्र, मैत्रेयरक्षित, पुरुषोतमदेव, सृष्टिधर, भट्टोजी दीक्षित आदि के नाम विशेष