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व्याकरण-शास्त्र का इतिहास]
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[व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
प्राप्त करने के लिए अनेक व्याकरण प्रक्रियाक्रमानुसार लिखे गए । इनकी विशेषता यह है कि छात्र इन ग्रन्थों का जितना अंश पढ़ जाय उसे उस अंश का पूर्ण ज्ञान हो जायगा। अतः व्याकरण को अधिक सरल बनाने के लिए 'रूपमाला' मामक व्याकरण की रचना १३५० ई० में हुई जिसे विमल सरस्वती ने लिखा। इस ग्रंथ की रचना विषयवार 'कौमुदी' के ढङ्ग पर हुई थी। बाद में रामचन्द्र ने 'प्रक्रिया कौमुदी' एवं विट्ठलाचार्य तथा शेषकृष्ण ने उसकी व्याख्याएं लिखीं। आगे चलकर 'प्रक्रियाकोमुदी' के आधार पर भट्टोजि दीक्षित (सं० १५१०-१५७५ के मध्य ) ने प्रयोगक्रमानुसारी 'सिद्धान्त कौमुदी' नामक अष्टाध्यायी की टीका लिखी जिसमें पाणिनि के समस्त सूत्रों का समावेश किया गया था। इनके पूर्व 'रूपमाला' तथा 'प्रक्रियाकौमुदी' में पाणिनि के सभी सूत्र सन्निविष्ट नहीं किए गए थे। उस समय से अद्यावधि समस्त भारतवर्ष में 'सिद्धान्तकौमुदी' का ही अध्ययन-अध्यापन होता है और उसकी जड़ें जम चुकी हैं। सिद्धान्तकौमुदी की 'प्रौढमनोरमा' एवं 'बालमनोरमा' नामक टीकाएं हैं। सिद्धान्तकौमुदी की भी अनेक टीकाएं रची गयी हैं और इसके व्याख्याताओं में रामनन्द की सत्त्वदीपिका (सं० १६८०-१७२०) तथा नागेशभट्ट (सं० १७२०-१७८० ) के 'वृहच्छन्देन्दुशेखर तथा लघुशब्देन्दुशेखर' नामक ग्रंथ अत्यधिक महत्त्व के हैं। ...
दीक्षित की ही परम्परा में वरदराजाचार्य हुए जिन्होंने छात्रोपयोगी तीन व्याकरण ग्रन्थ लिखे-'मध्यसिद्धान्त कौमुदी' 'लघुसिद्धान्त कौमुदी' तथा 'सारसिद्धान्त कौमुदी' । तीनों ही पंथ प्रारम्भिक कक्षा के छात्रों के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं और सम्प्रति समस्त भारत की प्रथमा एवं मध्यमा परीक्षाओं में इनका अध्यापन होता है।
पाणिनि के . उत्तरवर्ती व्याकरण के सम्प्रदाय-संस्कृत साहित्य में पाणिनिव्याकरण की ही अमिट छाप है, किन्तु इसके अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से भी व्याकरणशास्त्र का विकास हुमा और तत्सम्बन्धी कई धाराओं का भी उद्योतन हुमा । पाणिनि के परवर्ती व्याकरणिक सम्प्रदायों में, जो आज भी विद्यमान हैं, निम्नांकित है१ चान्द्र-सम्प्रदाय, २ जेनेन्द्र-सम्प्रदाय, ३ शाकटायन सम्प्रदाय, ४ हैम-सम्प्रदाय, ५ कातंत्र-सम्प्रदाय, ६ सारस्वत-सम्प्रदाय, ७ बोपदेव और उनका सम्प्रदाय, ८ क्रमदीश्वर तथा जेनर सम्प्रदाय, ९ सौपद्य-सम्प्रदाय ।
चान्द्र सम्प्रदाय-बौद्ध विद्वान् चन्द्रगोमी ने चान्द्र व्याकरण की रचना की थी। इनका समय ५०० ई० है। यह सम्प्रदाय लंका में अधिक प्रचलित हुआ । १३ वीं शताब्दी के बौद्धाचार्य काश्यप ने 'बालावबोध' नामक ग्रन्थ की रचना कर चान व्याकरण का परिष्कार किया था।
जैनेन्द्र सम्प्रदाय-जैनधर्मावलम्बियों ने अपने व्याकरण को जैनेन्द्र सम्प्रदाय का व्याकरण कहा है, जिसके रचयिता महावीर जिन थे। कहा जाता है कि जब महावीर आठ वर्ष के थे तभी उन्होंने इन्द्र से व्याकरण-सम्बन्धी प्रश्न किये थे और उनसे उत्तर के रूप में जो व्याकरणसम्बन्धी विचार पाया उसे 'जिनेन्द्र' व्याकरण का रूप दिया। जिन
और इन्द्र के सम्मिलित प्रयास के कारण इसका नाम जिनेन्द्र पड़ा है। इसमें एक सहन सूत्र हैं जिनमें सात सौ सूत्र अपने हैं तथा तीन सौ सूत्र संकलित हैं। इस पर