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व्याकरण शास्त्र का इतिहास ]
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[ व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
उल्लेखनीय हैं | ( इनके विवरण के लिए दे० अष्टाध्यायी के वृत्तिकार ) । इनमें वामन और जयादित्य की संयुक्त वृत्ति काशिका का महत्वपूर्ण स्थान है। काशिका में आठ अध्याय हैं जिनमें प्रारम्भिक पांच जयादित्य द्वारा तथा शेष तीन वामन द्वारा लिखे गए हैं । इत्सिंग के यात्रा विवरण से पता चलता हैं कि वामन की मृत्यु विक्रम ७१८ में हुई थी । अष्टाध्यायी की वास्तविक व्याख्या काशिका में ही उपस्थित की गयी है । इसमें अष्टाध्यायी के सभी सूत्रों पर सरल व्याख्या तथा अनुवृत्तियों का निर्देश करते हुए उदाहरण भी प्रस्तुत किये गए हैं। आगे चलकर काशिका को भी टीका लिखी गयी और अष्टाध्यायी के विचार अधिक स्पष्ट हुए । काशिका की व्याख्या का नाम है न्यास या काशिका - विवरण - पंजिका जिसके लेखक हैं जिनेन्द्रबुद्धि । काशिका की अन्य टीकाएं भी लिखी गयीं जिनमें हरदत्त की 'पदमंजरी' उल्लेख्य है- ( दे० काशिका के टीकाकार ) । अष्टाध्यायी के आधार पर उसके सूत्रों को स्पष्ट करने के लिए परवर्ती काल में अत्यधिक प्रयत्न हुए जिससे तद्विषयक प्रभूत साहित्य रचा गया। महाभाष्य के ऊपर भी असंख्य ग्रन्थ टीकाओं और भाष्यों के रूप में रचे गए। इनमें से कुछ तो टीकाएं नष्ट हो गयी हैं। बहुत कुछ हस्तलेखों में विद्यमान हैं, और कुछ का कुछ भी परिचय नहीं प्राप्त होता । महाभाष्य के टीकाकारों में भर्तृहरि कृत 'महाभाष्यदीपिका', कैयट 'कृत 'महाभाष्य प्रदीप' के नाम विशेष प्रसिद्ध हैं । अन्य टीकाकारों के नाम हैं. ज्येष्ठ कलश, मैत्रेय रक्षित, पुरुषोत्तमदेव, शेषनारायण, विष्णुमित्र, नीलकण्ठ, शेषविष्णु, शिवर।मेन्द्रसरस्वती, आदि । ( इनके विवरण के लिए देखिए महाभाष्य ) । महाभाष्य का साहित्य आगे चलकर बहुत विस्तृत हो गया ओर कैयटरचित, 'महाभाष्य प्रदीप' की भी अनेक व्याख्याएं रची गयीं। इनमें (चिंतामणिकृत ) महाभाष्य कैयटप्रकाश, (नागनाथ महाभाष्य प्रदीपोद्योतन, रामचन्द्रकृत विवरण, ईश्वरानन्दकृत महाभाष्यप्रदीप विवरण, अभट्ट महाभाष्य प्रदीपोद्योतन, नारायण शास्त्री कृत महाभाष्य प्रदीप व्याख्या, नागेश भट्ट कृत महाभाष्यप्रदीपोद्योतन, लघुशब्देन्दुशेखर, बृहदशब्देन्दुशेखर, परिभाषेन्दुशेखर, लघुमंजूषा, स्फोटवाद तथा महाभाष्य प्रत्याख्यान संग्रह के नाम प्रसिद्ध हैं । नागेशभट्ट के • शिष्य वैद्यनाथ पायगुंडे ने महाभाष्यप्रदीपोद्योतन पर 'छाया' नामक टीका लिखी है । इस प्रकार महाभाष्य की टीकाएं एवं उनकी टीकाओं की भी टीकाएं प्रस्तुत करते हुए सहस्रों ग्रन्थ लिखे गए और महाभाष्य विषयक विशाल साहित्य प्रस्तुत हुआ ।
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प्रक्रिया ग्रन्थ - इसी बीच पाणिनि व्याकरण के सम्बन्ध में अत्यन्त महत्त्व पूर्णघटना घटी जिससे इसके अध्ययन-अध्यापन एवं विवेचन में युगान्तर का प्रवेश हुआ । इसे 'प्रक्रिया काल' कहा जाता है । हम ऊपर देख चुके हैं कि पाणिनि एवं पतंजलि सम्बन्धी प्रभूत साहित्य की रचना होती गयी और व्याकरण का विषय दिनानुदिन दुरूह होता गया । फलतः विद्वानों को पठन-पाठन की रीति में परिवर्तन आवश्यक दिखाई पड़ा । पाणिनि की अष्टाध्यायी का जब तक पूरा अध्ययन नहीं किया जाता तब तक उसे किसी भी विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होगा, क्योंकि 'अष्टाध्यायी' की रचना विषयवार नहीं हुई है। उसके विभिन्न विषयों के सूत्र और नियम एक स्थान पर न होकर अनेक स्थलों पर बिखरे हुए हैं। इसलिए अल्पमेधस् या अल्प समय में व्याकरण का शोन