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शिक्षा]
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. [शिक्षा
समुद्रमंथन, शिव का कालकूट पान करना तथा दक्षयज्ञ विध्वंस प्रभूति घटनायें विस्तार. पूर्वक वर्णित हैं। इसके रचयिता के सम्बन्ध में अन्य बातें ज्ञात नहीं होती। इसकी शैली सरल एवं सीधी-सादी पदावली से युक्त है । कवि के अनुसार सुकुमार काव्य में कहीं-कहीं काठिन्य अधिक रमणीय होता है-'काव्येषु सुकुमारेषु काठिन्यं कुत्रचिप्रियम् ॥' काव्य की रचना का उद्देश्य कवि के शब्दों में इस प्रकार है-तमादिश. तापसवेशधारी स्वप्ने कदाचित्स्वयमेव शम्भुः। निजापदाननिखिलरुपेतं प्रबन्धमेकपरिकल्पयेति । १३ । तत इदमभिजातगद्यपद्यप्रतिपदपवितप्रसादरम्यम् । अकृत स कविवादिशेखरो यं शिवचरितं रसभासुरं प्रबन्धम् । १।४। यह ग्रन्थ अभी तक अप्रकाशित है और इसका विवरण तंजोर केटलाग ४१५९ में प्राप्त होता है।
आधारग्रन्थ-चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-डॉ. छविनाथ त्रिपाठी।
शिक्षा-वेदाङ्गों में प्रथम स्थान शिक्षा का है [ दे. वेदाङ्ग]। शिक्षा का अर्थ है स्वर, वर्ण एवं उच्चारण का उपदेश देनेवाली विद्या। 'स्वरवर्णाच्चारणप्रकारो. यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षा-ऋग्वेदभाष्य भूमिका पृ० ४९ । वेद में तीन प्रकार के स्वर होते हैं-उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के लिए तीनों स्वरों का सम्यक् ज्ञान एवं अभ्यास आवश्यक होता है, अन्यथा महान् अनर्थ हो जा सकता है। उच्च स्वर से उदात्त का, धीमे स्वर से अनुदास का एवं उदात्त और अनुदात्त के बीच की अवस्थाओं को स्वरित कहते हैं। वेद के प्रत्येक स्वर में कोई स्वर उदात्त अवश्य होता है और शेष अनुदात्त होते हैं। अनुदात्तों में कोई स्वर विशिष्ट परिस्थिति में स्वरित भी होता है। वेद में शब्द एक हो तब भी स्वर के भेद से उसमें अर्थ-भेद हो जाता है और स्वरों की साधारण त्रुटि के कारण अनर्थ हो जाने की संभावना हो जाती है। इस सम्बन्ध में एक प्राचीन कथा प्रचलित है। वृत्रासुर ने इन्द्र का विनाश करने के लिए एक विराट यज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें होम का मन्त्र था 'इन्द्र-शत्रुर्वधस्व' अर्थात् 'इन्द्र का शत्रु या घातक विजयी हो। यह अर्थ तभी बनता जबकि 'इन्द्रशत्रुः' अन्तोदात्त होता, किन्तु ऋत्विजों की अनवधानता के कारण आदि उदात्त ( इन्द्र शब्द में '३') का ही उच्चारण किया गया जिससे वह तत्पुरुष न होकर बहुव्रीहि बन गया और इसका अर्थ हो गया 'इन्द्रः शत्रुः यस्य' अर्थात् इन्द्र जिसका घात करने वाला है । इससे यह यज्ञ यजमान का घात करनेवाला सिद्ध हुआ। मन्त्री होनः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमर्थमाह । स वाग् बजो यजमानं हिनस्ति ययेन्द्रशत्रुः स्वरतोपराधात् ॥ पा०शि० ५२ । शिक्षा के ६ अंग हैं-वणं, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान-शिक्षां व्याख्यास्याम; वर्णः स्वरः, मात्रा, बलं, साम सन्तान इत्युक्तः, शिक्षाध्यायः, तैत्तिरीय ११२।
१-वर्ण-अक्षरों को वर्ण कहते हैं। वेद-शान के लिए संस्कृत की वर्णमाला का परिचय आवश्यक है। पाणिनि-शिक्षा के अनुसार संस्कृतवर्गों की संख्या ६९ या ६४ है। २-स्वर-इसका अभिप्राय उदात्त, अनुदात्त एवं स्वरित वादि स्वरों से है।