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व्यासतीर्थं ]
( ५६३ )
[ शबर स्वामी
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व्यासाय कविवेधसे । चक्रे सृष्टि सरस्वत्या यो वर्षमिव भारतम् ॥ हर्षचरित १ | ३ | ४. श्रवणाञ्जलिपुटपेयं विरचितवान् भारताख्यममृतं यः । तमहमरागमतृष्णं कृष्णद्वैपायनं बन्दे ॥ नारायणभट्ट सुभाषितरत्नभाण्डागार २।१२२ ।
व्यासतीर्थ-ये माध्वदर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। इनका समय १५ वीं शताब्दी है । इन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं जिनमें टीकाएँ एवं मौलिक रचनाएँ दोनों ही हैं । इनका 'न्यायामृत' नामक मौलिक ग्रन्थ माध्वदर्शन का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है जिसमें अद्वैतवाद का खण्डन कर द्वैतमत ( माध्वदर्शन ) की स्थापना की गयी है [ दे० माध्वदर्शन ], इनके टीका ग्रन्थ हैं-तर्कताण्डव, तात्पयंचन्द्रिका, ( यह जयतीथं रचित 'तत्वप्रकाशिका' की टीका है, जयतीर्थं माध्वमत के आचार्य थे ), मन्दारमन्जरी, भेदोजीवन, मायावाद - खण्डन । 'न्यायामृत' के ऊपर १० टीकाएं लिखी गयी हैं इनमें रामाचार्य रचित 'तरंगिणी' तथा विजयीन्द्रतीर्थं कृत 'कण्टकोद्धार' अत्यधिक प्रसिद्ध हैं । दे० भारतीयदर्शन-आ० बलदेव उपाध्याय ।
व्यासस्मृति - इस स्मृति के रचयिता व्यास माने जाते हैं । जीवानन्द तथा आनन्दाश्रम के संग्रह में 'व्यासस्मृति' के २५० श्लोक प्राप्त होते हैं । यह स्मृति चार अध्यायों में विभक्त है । विश्वरूप, मेधातिथि, अपराकं आदि ने 'व्यासस्मृति' के लगभग २०० श्लोक उद्धृत किये हैं । वलालसेन कृत 'दानसागर' में महाव्यास, लघुव्यास एवं दानव्यास का उल्लेख है । 'स्मृतिचन्द्रिका' ने गद्यव्यास का भी उल्लेख किया है । बृहद्व्यास के उद्धरण 'मिताक्षरा' 'प्रायश्चित्तमयूख' एवं अन्य ग्रन्थों में भी प्राप्त होते हैं । उपर्युक्त सभी ग्रन्थों के रचयिता एक थे या भिन्न-भिन्न इस संबंध अभी तक कोई निश्चित मत नहीं है । डॉ० काणे ने 'व्यांसस्मृति' का समय ईसा की दूसरी तथा पाँचवीं शताब्दी माना है, अतः इसके रचयिता महाभारतकार व्यास से भिन्न सिद्ध होते हैं । इस स्मृति में उत्तर के चार प्रकार वर्णित हैं- मिथ्या, सम्प्रतिपत्ति, कारण तथा प्राङ्न्याय । लेखप्रमाण के भी तीन प्रकार माने गए हैं- स्वहस्त, जानपद
तथा राजशासन ।
माधारग्रन्थ - धर्मशास्त्र का इतिहास- डॉ० पी०वी० काणे भाग १, हिन्दी अनुवाद । शबर स्वामी - मीमांसा दर्शन के प्रसिद्ध भाष्यकर्ता आचार्य शबरस्वामी हैं । इनकी एकमात्र रचना 'मीमांसाभाष्य' है । शबरस्वामी ने अपने भाष्य में कात्यायन एवं पाणिनि का उल्लेख किया है - सद्वादित्वात् पाणिनेः वचनं प्रमाणम्, असद्वादित्वात् कात्यायनस्य, असद्वादी हि विद्यमानमपि अनुपलभ्य ब्रूयात् ( पृ० १०८ ) । अतः इनका समय दोनों के बाद ही निश्चित होता है । इनका स्थितिकाल ई० पू० १०० वर्ष माना जाता है । मीमांसा दर्शन का परवर्ती विकास शबरस्वामी रचित भाष्य को ही आधार मान कर हुआ । कतिपय विद्वान् इतना जन्मस्थान मद्रास एवं कार्य-क्षेत्र बिहार मानते हैं, किन्तु इस सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता । 'शाबरभाष्य' विचारों की स्पष्टता, शैली की सरलता एवं विषय- प्रतिपादन की प्रौढ़ता की दृष्टि से संस्कृत साहित्य में विशेष स्थान का अधिकारी है । इसका गद्य संस्कृत गद्य-शैली के विकास में, सरलता के कारण, अपना महत्व रखता है ।