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व्याकरण-शान का इतिहास]
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व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
बावश्यक बताया गया है । ४. लघु-लघुता के लिए व्याकरण का अध्ययन अनिवार्य है। इसके द्वारा सभी शास्त्रों का रहस्य अल्पकाल में जाना जा सकता है। (लघुता लघु उपाय का घोतक है)। ५. असन्देह-वैदिक शब्दों के सम्बन्ध में उत्पन्न सन्देह का निराकरण व्याकरण के द्वारा ही होता है।
उपयुक्त पांच प्रयोजनों के अतिरिक्त पतन्जलि ने तेरह अन्य प्रयोजनों का भी उल्लेख किया है। वे हैं-अपभाषण, दुष्टशब्द, अर्थज्ञान, धर्मलाभ, नामकरण आदि ।
क. अपभाषण-शब्दों के अशुद्ध उच्चारण से दूर हटाने का कार्य व्याकरण करता है। वर्षों एवं शब्दों का शुद्ध उच्चारण करना आर्य है एवं अशुद्ध उच्चारण म्लेच्छ । अतः म्लेच्छ होने से बचने के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है । ख. दुष्टशब्दसम्दों की शुद्धता एवं अशुद्धि का ज्ञान व्याकरण द्वारा ही होता है। अशुद्ध शब्दों के प्रयोग से अनपं हो जा सकता है। अतः दुष्ट शब्दों के प्रयोग से बचने के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है। ग. अज्ञान-व्याकरण के अध्ययन के बिना वेद का अर्थशान नहीं हो सकता। अर्थज्ञान होने पर ही शब्द-ज्ञान होता है। घ. धर्मलाभशुद्ध शब्दों का प्रयोग करने वाला स्वर्ग प्राप्त करता है और अपशब्दों का प्रयोग करनेवाला पाप का भाजन होता है। अतः धर्म-लाभ के लिए व्याकरण का अध्ययन आवश्यक है । इ. नामकरण-गृह्यकारों के अनुसार नवजात शिशु का नाम दशम दिन होना चाहिए । नामकरण के विशिष्ट नियमों के अनुसार वह कृदन्त होना चाहिए वनितान्त नहीं। इस विषय का ज्ञान केवल व्याकरण द्वारा ही संभव है। संस्कृत में वैदिक और लौकिक दोनों रूपों के अनेकानेक व्याकरण हैं जिनमें पाणिनि-व्याकरण अत्यन्त प्रसिद्ध है [अन्य व्याकरणों के विवरण के लिए दे० व्याकरण का इतिहास].
आधारग्रन्थ-वैदिक साहित्य और संस्कृति-पं० बलदेव उपाध्याय ।
व्याकरण-शास्त्र का इतिहास-भारतवर्ष का व्याकरण शास्त्र विश्व की सर्वाधिक प्राचीन एवं प्रौढ़ विद्या है जिसका मूल रूप ऋग्वेद में ही प्राप्त होता है। वैदिक मन्त्रों में अनेक पदों की व्युत्पत्तियां उपलब्ध होती हैं। रामायण, गोपथ ब्राह्मण, मुण्डकोपनिषद् तथा महाभारत में शब्दशास्त्र के लिए व्याकरण शब्द का प्रयोग मिलता है जिससे इसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। सर्वार्थानां व्याकरणाद् वैयाकरण उच्यते । तन्मलतो व्याकरणं व्याकरोतीति तत्तथा ।। महाभारत, उद्योम ४३६१ । भारतवर्ष में व्याकरणशास्त्र का स्वतन्त्र रूप से विकास हुआ है और इसके अन्तर्गत आधुनिक भाषा-विज्ञान के सभी मङ्गों का समावेश होता है। ऋग्वेद में 'चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादाः'(४-५८.३) तथा 'चत्वारि वाक्परिमिता पदानि' ऋग० (१.१६४-४५)। उहिसित मन्त्रों की व्याख्या वैयाकरणिक पति से करते हुए पतंजलि ने नाम, बाख्यात, उपसर्ग, निपात इन शब्द-विभागों तथा तीन कालों और सात विभक्तियों की ओर संकेत किया है, एवं सायण ने भी उनका वैयाकरणिक अर्थ प्रस्तुत किया है। षडङ्ग शब्द के साथ ब्राह्मण-प्रन्थों में व्याकरण का भी निर्देश है। शिक्षा, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, कल्प एवं ज्योतिष इन छह वेदांगों को गोपथ ब्राह्मण, बोधायनादि