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व्याकरण]
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[व्याकरण
पनादि काल से चला आ रहा है। प्रलय के समय विश्वात्मा ब्रह्मा अपना शरीर त्याग कर देते हैं और महेश्वर सृष्टि का संहार करने की इच्छा करते हैं। प्रलय में केवल परीर ही नष्ट होता है, किन्तु आत्मा अनित्य होने के कारण नष्ट नहीं होता। वैशेषिक दर्शन में ईश्वर, जीवात्मा एवं परमाणु तीनों की सत्ता मान्य है । इससे वह ईश्वरवादी होते हुए भी अनेकवादी सिद्ध होता है।
आधारमन्य-१. वैशेषिकदर्शन-५०. हरिमोहन मा। २. पदार्थशास्त्र-पं० आनन्द झा। ३. भारतीयदर्शन-पटंजी बोर दत्त (हिन्दी अनुवाद)। ४. भारतीय दर्शन-५० बलदेव उपाध्याय । ५. दर्शन-संग्रह-डॉ.दीवानचन्द्र । ६. हिन्दी वैशेषिक दर्शन-पं० डण्डिराज शास्त्री (चौखम्बा प्रकाशन )। ७. वैशेषिकसूत्र-श्रीराम शर्मा (हिन्दी अनुवाद सहित)।
व्याकरण-वेदांगों में व्याकरण का तीसरा स्थान है [दे. वेदाङ्ग]। इसे वेद का मुख माना जाता है-मुखं व्याकरणं स्मृतम् । वेद-पुरुष का मुख होने के कारण इसकी वेदांगों में प्रमुखता है । वेदों में भी व्याकरण की प्रशंसा में अनेक मन्त्र उपग्यस्त हैं। ऋग्वेद के एक प्रसिद्ध मन्त्र में शब्दशास्त्र या व्याकरण वृषभ के रूप में वर्णित है। इसके नाम, आख्यात (क्रिया), उपसर्ग और निपात चार.सींग हैं तथा वर्तमान, भूत
और भविष्य तीनों काल तीन पाद कहे गए हैं। सुप् और तिङ् दो सिर है तथा सातो विभक्तियां सात हाथ है। यह उर, कण्ठ और सिर तीन स्थानों में बंधा है। चत्वारि शृङ्गा यो अस्य पादा देशी सप्तहस्तासो अस्य । त्रिधा बडो वृषभो रोरवीति महोदेवो मयां वाविवेश ॥ ऋग्वेद ४।५८६ । 'ऋग्वेद' के एक अन्य मन्त्र में व्याकरण के विशेषज्ञ एवं अनभिन्न की तुलना करते हुए कहा गया है कि व्याकरण से अनभिज्ञ पुरुष देखकर भी नहीं देखता और सुन कर भी नहीं सुनवा, पर वैयाकरण के समक्ष वाणो अपने स्वरूप को उसी प्रकार प्रकट कर देती है, जिस प्रकार कामिनी अपने पति के समक्ष शोभन वस्त्रों को उतार देती है। उतत्वः पश्यन् न ददशं वाचम् उतत्वः मृण्वन् न प्रणोत्येनाम् । उतो त्वस्मे तन्वं विसले जायेव पत्ये उशती सुवासाः ॥ ऋग्वेद १०७१।४ आचार्य वररुचि ने व्याकरण के अध्ययन के पांच प्रयोजन बताये हैं। पतम्जलि के अनुसार व्याकरण के तेरह प्रयोजन होते हैं । उन्होंने इस विषय का विवरण 'महाभाष्य' (पस्पशाहिक) के प्रारम्भ में किया है। प्रधान पांच प्रयोजन है-रक्षा, मह, आगम, लघु तथा असन्देह । रक्षोहागमलव्यसन्देहाः प्रयोजनम् (महाभाष्य-पस्पशाहिक)।
१. रक्षा-वेद की रक्षा ही व्याकरण अध्ययन का प्रधान उद्देश्य है। वेदों का उपयोग यज्ञों के विधान में होता है। किस मन्त्र का किस यज्ञ में उपयोग हो तथा किसका कहां विनियोग किया जाय,. इसे वही बता सकता है जो वेदमन्त्रों के पदों का अर्थ अच्छी तरह से जान सके। यह कार्य वैयाकरण ही कर सकता है इसलिए वेद की रक्षा व्याकरण से ही संभव है । २. ऊह-नये पदों की कल्पना को 'ऊह' कहते हैं ।
यज्ञानुरूप विविध वैदिक मंत्रों के शब्दों की विभक्ति एवं लिंग-निर्णय करना आवश्यक , हे और यह कार्य कोई व्याकरण का नाता ही कर सकता है। ३. आगम-श्रुति में
वैयाकरण का महत्त्व प्रदर्शित करने के लिए ब्राह्मण को अंगों सहित वेदों का अध्ययन