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पांचवां बोल-१३ शास्त्र मे आलोचना के सम्बन्ध मे खूब विस्तृत विवेचन किया गया है। श्री महानिशीथ सूत्र मे आलोचना के निक्षेप करके अत्यन्त सरलतापूर्वक वर्णन किया गया है।
उस वर्णन का साराश यह है कि नाम आलोचना, स्थापना - आलोचना, द्रव्य आलोचना और भाव आलोचना-इस प्रकार
आलोचना के चार भेद है । नाम मात्र की आलोचना अर्थात आलोचना का सिर्फ नाम ले लेना नाम आलोचना है। किसी जगह आलोचना की स्थापना करना या पुस्तक आदि में आलाचना लिखना स्थापना-आलोचना है । ऊपर-ऊपर से आलोचना करना और हृदय से पालोचना न करना द्रव्यअलोचना है । अन्तकरण से, भावपूर्वक आलोचना करना भाव-आलोचना कहलाती है।
अभी रामजी भाई को ब्रह्मचर्य स्वीकार करने उपलक्ष्य मे बारह व्रतो की जो आलोचना कराई गई है, वह केवल उन्ही को कराई गई है या तुम्हे भी ? वह स्थूल हिंसा नही करते और न स्थूल असत्य भाषण करते हैं । क्या तुम ऐसा करते हो ? अगर ऐसा नही करते तो यह आलोचना तुम्हारे लिए भी है । मगर एक बात सदैव ध्यान में रखना चाहिए, वह यह कि आलोचना केवल द्रव्य-आलोचना ही न रह जाये।
यहा शास्त्र मे भाव-आलोचना का ही वर्णन है,। ( भाव-आलोचना का स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया है. -
'पालोयइ, निदइ, गरिहइ, पडिक्कमइ' पाहारियं तवोकम्मं पायच्छित्तं पडिवज्जइ, पाराहियं भवइ।'
इस प्रकार की आलोचना ही भाव-आलोचना है। सवत्सरी पर्व जीवन को शुद्ध बनाने का पर्व है । यह पर्व