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का पांचवां बोल-११ आजकल ग्रामो की अपेक्षा माह में कपट अधिक देखा जाता है । इस कपट को हटाकर-सरलतापूवक अपने पाप परमात्मा की साक्षी से, गुरु के समक्ष प्रकट करना चाहिए । एक कवि ने कहा हैकि बाललीलाकलितो न बाल,
पित्रोः पुरो जल्पति निर्विकल्पः । तथा यथार्थ कथयामि नाथ !
- निजाशय सानुशयस्तवाने ॥
अर्थात् -हे नाथ ! तुम्हारे सामने वास्तविक बात प्रकट १ करने में मुझे सकोच ही क्या हो सकता है ? अथवा ऐसा । करने में मेरी विशेषता ही क्या है ? क्या बालक अपने मातापिता के सामने सब बात खोलकर नही कह देता ? पिता भले ही वह बातें जानता हो, फिर भी बालक तो सब बातें कह ही देता है । वालक की भांति, हे नाथ | अगर में भी सब बाते तुम्हारे समक्ष स्पष्ट कह दू तो इसमे सकोच की क्या बात है ? और विशेषता भी क्या?
तुम वालक की भांति निष्कपट और सरल बनो । हृदय मे जो शल्य हो उन्हे निकाल फेको। विचार करो कि अगर मैं परमात्मा के सामने भी सरल न बना तो फिर और कहा सरल बनूंगा? पाप छिपाने से छिप तो सकते नही हैं, फिर उन्हे छिपाने का प्रयत्न करके अधिकतर दण्ड का पात्र - क्यो बनना चाहिए ? कहावत है- 'उत्तम' का दण्ड साधसमागम, मध्यम का दण्ड राज्य और अधम का दण्ड यमराज।' अत यह विचार करो कि हम अपने पाप प्रकट करके उत्तम . दण्ड ही क्यो न भोग ? जिन पापो के कारण आज साधारण दण्ड भोगते दुख होता है, उन्ही पापों को छिपाने के कारण