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समयसार अनुशीलन
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है कि वह भाव आत्मा का कर्म है और आत्मा उस भाव का कर्ता है। वह भाव भी ज्ञानी के ज्ञानमय ही होता है; क्योंकि ज्ञानी को स्वपर के विवेक से सर्व परभावों से भिन्न आत्मा की ख्याति सम्यक्प्रकार से अत्यन्त उदय को प्राप्त हुई है। तथा वह भाव अज्ञानी के अज्ञानमय ही होता है; क्योंकि उसे सम्यक्प्रकार से स्वपर का विवेक न होने से परपदार्थों से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यन्त अस्व हो गई है।
सम्यक्प्रकार से स्वपर का विवेक न होने से, पर से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यन्त अस्त होने से; अज्ञानी के अज्ञानमय भाव ही होते हैं। ऐसी स्थिति में स्वपर के एकत्व के अभ्यास के कारण ज्ञानमात्रभाव से भ्रष्ट और राग-द्वेष भाव से एकाकार होकर अहंकार में प्रवर्त्तमान 'मैं रागी हूँ, द्वेषी हूँ, मैं रागद्वेष करता हूँ'- इसप्रकार मानता हुआ अज्ञानी रागी-द्वेषी होता है, अज्ञानमय भाव के कारण स्वयं को राग-द्वेषरूप करता हुआ कर्मों को करता है। .ज्ञानी के तो सम्यक्प्रकार से स्वपर के विवेक के द्वारा पर से भिन्न आत्मा की ख्याति अत्यन्त उदय को प्राप्त हुई होने से ज्ञानमय भाव ही होता है। ऐसी स्थिति में स्वपर के भिन्नत्व के विज्ञान के कारण ज्ञानमात्र निजभाव में भलीप्रकार स्थित, पररूप राग-द्वेषादि भावों से भिन्नत्व के कारण अहंकार से निवृत्त ज्ञानी मात्र जानता ही है, रागी-द्वेषी नहीं होता, राग-द्वेष नहीं करता। इसप्रकार ज्ञानमय भाव के कारण ज्ञानी स्वयं को राग-द्वेष रूप न करता हुआ कर्मों को नहीं करता।"
इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं -
"ज्ञानी को स्वपर का भेदज्ञान हुआ है; इसलिए उसके अपने ज्ञानमयभाव - का ही कर्तृत्व है और अज्ञानी को स्वपर का भेदज्ञान नहीं है; इसलिए उसके अज्ञानमय भाव का ही कर्तृत्व है।
इस आत्मा के क्रोधादिक मोहनीय कर्म की प्रकृति (राग-द्वेष) का उदय आने पर अपने उपयोग में उसका राग-द्वेष रूप मलिन स्वाद आता है। अज्ञानी