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समयसार अनुशीलन
278 तात्पर्य यह है कि ज्ञानी आत्मा परपदार्थों और पर्याय में विद्यमान रागादिभावों का सहज ज्ञाता-दृष्टा ही रहता है, कर्ता-भोक्ता नहीं बनता। इसीकारण उसे मिथ्यात्वादि संबंधी बंध नहीं होता।
इस संबंध में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है -
"अज्ञानी अपनी मिथ्या मान्यता से ऐसा मानता है कि राग मेरा कार्य है। अतः वह राग का कर्ता ही है तथा ज्ञानी अपनी स्व-परप्रकाशक शक्ति द्वारा राग को व स्वयं को मात्र जानता ही है, अतः ज्ञाता ही है। कथंचित् जानता है और कथंचित् करता है - ऐसा नहीं है; क्योंकि कर्तृत्व और ज्ञातृत्व ये दो एक साथ नहीं रह सकते।"
इसी बात का स्पष्टीकरण आगामी कलश में भी करते हैं, जो इसप्रकार
(इन्द्रवज्रा) ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेऽन्तः,
ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः । ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने, - ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ॥९७॥
(रोला) करने रूप क्रिया में जानना भासित न हो। . जानन रूप क्रिया में करना भासित न हो ।
इसीलिए तो जानन-करना भिन्न-भिन्न है।
इसीलिए तो ज्ञाता-कर्ता भिन्न-भिन्न हैं ॥९७॥ करने रूप क्रिया के भीतर जानने रूप क्रिया भासित नहीं होती और जानने रूप क्रिया के भीतर करने रूप क्रिया भासित नहीं होती। इसलिए ज्ञप्ति क्रिया और करोति क्रिया दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इससे सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है, वह कर्ता नहीं।
पाण्डे राजमलजी ज्ञप्ति क्रिया का अर्थ ज्ञानगुण और करोति क्रिया का अर्थ , मिथ्यात्व रागादिरूप चिक्कणता करते हैं। अपनी बात को स्पष्ट करते हुए वे १. प्रवचनरत्नाकर भाग-४, पृष्ठ ३८३