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समयसार अनुशीलन
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( सवैया इकतीसा ) समुझैं न ज्ञान कहैं करम कियेसौं मोख, ऐसे जीव विकल मिथ्यात की गहल मैं । ग्यान पच्छ गर्दै कहैं आतमा अबंध सदा,
बरतैं सुछंद तेऊ बूढे हैं चहल मैं | जथा जोग करम करें पै ममता न धरें,
रहें सावधान ग्यान ध्यान की टहल मैं । तेई भवसागर के ऊपर है तरैं जीव,
जिन्हि को निवास स्यादवाद के महल मैं | जो जीव ज्ञान (आत्मा) को तो जानते नहीं है और ऐसा मानते हैं कि शुभकर्म करने से मोक्ष होगा - ऐसे जीव मिथ्यात्व की गहल (अर्धमूच्छितावस्था अथवा पागलपन) में विकल (आकुलित) हो रहे हैं ।
जो जीव ज्ञान का पक्ष ग्रहण करके कहते हैं कि आत्मा तो सदा अबंध ही है। ऐसा मानकर स्वच्छंद आचरण करते हैं; वे जीव भी भव-पंक में बूड़े ( डूबे - फंसे ) हैं । किन्तु जो यथायोग्य भूमिकानुसार शुभाचरण भी आचरते हैं; किन्तु उसमें ममत्व धारण नहीं करते; उसमें एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्थापित नहीं करते; तथा आत्मा के ज्ञान और ध्यान में सदा सावधान रहते हैं । इसप्रकार जिनका निवास स्याद्वादरूपी महल में है, वे जीव संसारसागर से पार हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि स्याद्वादी ही संसार - सागर के पार होते हैं।
इस कलश में यही कहा गया है कि ज्ञान और क्रिया के एकान्त को छोड़कर जो आत्मज्ञान और भूमिकानुसार आचरण को उत्पन्नकर आत्मोन्मुखी उग्रपुरुषार्थ करते हैं; वे ही संसार-सागर को पारकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं ।
इस संदर्भ में स्वामीजी के विचार इसप्रकार हैं
"इस कलश में कर्मनय व ज्ञाननय का अन्तर स्पष्ट करते हुये दोनों नयों के पक्षपोतियों को अज्ञानी कहा है; क्योंकि कर्मनय का पक्षपाती शुभक्रिया में अटका है। वह शुभक्रिया को ही अपना कर्म यानि कर्त्तव्य मान बैठा है एवं