Book Title: Samaysara Anushilan Part 02
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 198
________________ 389 गाथा पद्यानुवाद त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं धर्म हूँ' इम परिणमें । तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ॥ ९५॥ इसतरह यह मंदबुद्धी स्वयं के अज्ञान से । निज द्रव्य को पर करे अरु परद्रव्य को अपना करे ॥९६॥ बस इसतरह कर्ता कहें परमार्थ ज्ञायक आतमा । जो जानते यह तथ्य वे छोड़ें सकल कर्तापना ॥९७॥ व्यवहार से यह आतमा घटपटरथादिक द्रव्य का । इन्द्रियों का कर्म का नोकर्म का कर्ता कहा ॥९८॥ परद्रव्यमय हो जाय यदि पर द्रव्य में कुछ भी करें । परद्रव्यमय होता नहीं बस इसलिए कर्ता नहीं ॥९९॥ ना घट करे ना पट करे ना अन्य द्रव्यों को करे । कर्ता कहा तरूपपरिणत योग अर उपयोग का ॥१०॥ ज्ञानावरण आदिक जु पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं । उनको करे ना आतमा जो जानते वे ज्ञानि हैं ॥१०१॥ निजकृत शुभाशुभभाव का कर्ता कहा है आतमा । वे भाव उसके कर्म हैं वेदक है उनका आतमा ॥१०२॥ जब संक्रमण ना करे कोई द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में । तब करे कैसे परिणमन इक द्रव्य पर-गुण-द्रव्य में ॥१०३॥ कुछ भी करे ना जीव पुद्गल कर्म के गुण-द्रव्य में । जब उभय का कर्ता नहीं तब किसतरह कर्ता कहें? ॥१०४॥ बंध का जो हेतु उस परिणाम को लख जीव में । करम कीने जीव ने बस कह दिया उपचार से ॥१०५॥ रण में लड़ें भट पर कहे जग युद्ध राजा ने किया। बस उसतरह द्रवकर्म आतम ने किए व्यवहार से ॥ ९०६॥ ग्रहे बाँधे परिणमावे करे या पैदा करे । पुद्गल दरव को आतमा व्यवहारनय का कथन है ॥१०७॥ गुण-दोष उत्पादक कहा ज्यों भूप को व्यवहार से । त्यों जीव पुद्गल द्रव्य का कर्ता कहा व्यवहार से ॥१०८॥

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