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समयसार अनुशीलन
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( हरिगीत ) अज्ञान से ही भागते मृग रेत को जल जानकर । अज्ञान से ही डरे तम में रस्सी विषधर मानकर ॥ ज्ञानमय है जीव पर अज्ञान के कारण अहो । बातोद्वेलित उदधिवत कर्ता बने आकुलित हो ॥ ५८॥ दूध जल में भेद जाने ज्ञान से बस हंस ज्यों । सद्ज्ञान से अपना-पराया भेद जाने जीव त्यों ॥ जानता तो है सभी करता नहीं कुछ आतमा । चैतन्य में आरूढ़ नित ही यह अचल परमातमा ॥ ५९॥
( अडिल्ल छन्द ) उष्णोदक में उष्णता है अग्नि की ।
और शीतलता सहज ही नीर की ॥ व्यंजनों में है नमक का क्षारपन ।
ज्ञान ही यह जानता है विज्ञजन ॥ क्रोधादिक के कर्तापन को छेदता ।
अहंबुद्धि के मिथ्यातम को भेदता ॥ इसी ज्ञान में प्रगटे निज शुद्धात्मा ।
अपने रस से भरा हुआ यह आतमा ॥६०॥
( सोरठा ) करे निजातम भाव, ज्ञान और अज्ञानमय । करे न पर के भाव, ज्ञानस्वभावी आतमा ॥६१॥ ज्ञानस्वभावी जीव, करे ज्ञान से भिन्न क्या ? कर्ता पर का जीव, जगतजनों का मोह यह ॥६२॥
( दोहा ) यदी पौद्गलिक कर्म को करे न चेतनराय । कौन करे - अब यह कहें सुनो भरम नश जाय ॥६३॥