________________
समयसार कलश पद्यानुवाद कर्त्ताकर्माधिकार
( हरिगीत ) मैं एक कर्ता आत्मा क्रोधादि मेरे कर्म सब । यही कर्ताकर्म की है प्रवृत्ति अज्ञानमय ॥ शमन करती इसे प्रगटी सर्व विश्व विकाशनी । अतिधीर परमोदात्त पावन ज्ञानज्योति प्रकाशनी ॥ ४६ ॥ परपरणति को छोड़ती अर तोड़ती सब भेदभ्रम । यह अखण्ड प्रचण्ड प्रगटित हुई पावन ज्योति जब ॥ अज्ञानमय इस प्रवृत्ति को है कहाँ अवकाश तब । अर किसतरह हो कर्मबंधन जगी जगमग ज्योति जब ॥ ४७ ॥ ( सवैया इकतीसा )
इसप्रकार जान भिन्नता विभावभाव की,
कर्त्तृत्व का अहं विलायमान हो रहा । निज विज्ञानघनभाव गजारूढ़ हो,
निज भगवान शोभायमान हो रहा ॥ जगत का साक्षी पुरुषपुराण यह,
अपने स्वभाव में विकासमान हो रहा । अहो सद्ज्ञानवंत दृष्टिवंत यह पुमान,
जग मग ज्योतिमय प्रकाशमान हो रहा ॥ ४८ ॥ तत्स्वरूप भाव में ही व्याप्य व्यापक बने,
बने न कदापि वह अतत्स्वरूप भाव में । कर्त्ता - कर्म भाव का बनना असंभव है,
व्याप्य व्यापकभाव संबंध के अभाव में । इस भाँति प्रबल विवेक दिनकर से ही,
भेद अंधकार लीन निज ज्ञानभाव में । कर्तृत्व भार से शून्य शोभायमान,
पूर्ण निर्धार मगन आनन्द स्वभाव में ॥ ४९ ॥